Saturday, 5 November 2011

अनिवार्य है मांसाहार - डाक्टर एम. एस. स्वामीनाथन

 सन १९२५ में जन्मे डाक्टर एम. एस. स्वामीनाथन किसी परिचि के मोहताज नहीं है वह भारत के मशहूर कृषि वैज्ञानिक हरित क्रांति  के जनक अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त डाक्टर एम. एस. स्वामीनाथन के तमाम बयानों के बाद यह जग ज़ाहिर है की मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिए मांसाहार अति आवश्यक है |
नई दिल्ली के अंग्रेज़ी अख़बार स्टेट्समैन के अंक 4 सितम्बर 1967 में स्वामीनाथन का एक विशेष इंटरव्यू छपा था जो उन्होंने यूएनआई को दिया था। इसमें उन्होंने यह चेतावनी दी थी कि भारत के लोग अपनी खान-पान की आदतों की वजह से प्रोटीन के फ़ाक़े  के शिकार हैं। इस बयान में कहा गया था कि -‘‘अगले दो दषकों में भारत को बहुत बड़े पैमाने पर ज़हनी बौनेपन  के ख़तरे का सामना करना होगा, अगर प्रोटीन के फ़ाक़े का मसला हल नहीं हुआ।‘‘- ये अल्फ़ाज़ डाक्टर एम.एम.स्वामीनाथन ने यूएनआई को एक इंटरव्यू देते हुए कहे थे, जो इंडियन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली के डायरेक्टर रह चुके हैं। उन्होंने कहा था कि संतुलित आहार का विचार हालांकि नया नहीं है लेकिन दिमाग़ के विकास के सिलसिले में उसकी अहमियत एक नई बायलोजिकल खोज है। अब यह बात निश्चित है कि 4 साल की उम्र में इंसानी दिमाग़ 80 प्रतिशत से लेकन 90 प्रतिशत तक अपने पूरे वज़न को पहुंच जाता है और अगर उस नाज़ुक मुद्दत में बच्चे को मुनासिब प्रोटीन न मिल रही हो तो दिमाग़ अच्छी तरह विकसित नहीं हो सकता। डाक्टर स्वामीनाथन ने कहा कि भविष्य में विभिन्न जातीय वर्गों के ज़हनी फ़र्क़ का तुलनात्मक अध्ययन इस दृष्टिकोण से भी करना चाहिये। अगर कुपोषण और प्रोटीन के फ़ाक़े के मसले पर जल्दी तवज्जो न दी गई तो अगले दो दशकों में हमें यह मन्ज़र देखना पड़ेगा कि एक तरफ़ सभ्य क़ौमों की बौद्धिक ताक़त  में तेज़ी से इज़ाफ़ा हो रहा है और दूसरी तरफ़ हमारे मुल्क में ज़हनी बौनापन बढ़ रहा है। नौजवान नस्ल को प्राटीन के फ़ाक़े से निकालने में अगर हमने जल्दी न दिखाई तो नतीजा यह होगा कि हर रोज़ हमारे देष में 10,00,000 दस लाख बौने वजूद में आयेंगे। इसका बहुत कुछ असर हमारी नस्लों पर तो मौजूदा वर्षों में ही पड़ चुका होगा।पूछा गया कि इस मसले का हल क्या है ?डाक्टर स्वामीनाथन ने जवाब दिया कि सरकार को चाहिये कि वह अपने कार्यक्रमों के ज़रिये जनता में प्रोटीन के संबंध में चेतना जगाये और इस सिलसिले में लोगों को जागरूक बनाये।
ग़ैर-मांसीय आहार में प्रोटीन हासिल करने का सबसे बड़ा ज़रिया दालें हैं और जानवरों से हासिल होने वाले आहार मस्लन दूध में ज़्यादा आला क़िस्म का प्रोटीन पाया जाता है। प्रोटीन की ज़रूरत का अन्दाज़ा मात्रा और गुणवत्ता दोनों ऐतबार से करना चाहिए। औसत विकास के लिए प्रोटीन के समूह में 80 प्रकार के अमिनो एसिड होना ज़रूरी हैं। उन्होंने कहा कि ग़ैर-मांसीय आहार में कुछ प्रकार के एसिड मस्लन लाइसिन (lysine) और मैथोनाइन का मौजूद होना आम है जबकि ज्वार में लाइसिन की ज़्यादती उन इलाक़ों में बीमारी का कारण रही है जहां का मुख्य आहार यही अनाज है।
हालांकि जानवरों से मिलने वाले आहार का बड़े पैमाने पर उपलब्ध होना अच्छा है लेकिन उनकी प्राप्ति बड़ी महंगी है क्योंकि वनस्पति आहार को इस आहार में बदलने के लिए बहुत ज़्यादा एनर्जी बर्बाद करनी पड़ती है। एग्रीकल्चरल इंस्टीच्यूट में दुनिया भर के सभी हिस्सों से गेहूं और ज्वार की क़िस्में मंगवाकर जमा की गईं और इस ऐतबार से उनका विश्लेषण किया गया कि किस क़िस्म में कितने अमिनो एसिड पाए जाते हैं ? रिसर्च से इनमें दिलचस्प फ़र्क़ मालूम हुआ। इनमें प्रोटीन की मात्रा 7 प्रतिशत से लेकर 16 प्रतिशत तक मौजूद थी। यह भी पता चला कि नाइट्रोजन की खाद इस्तेमाल करके आधे के क़रीब तक उनका प्रोटीन बढ़ाया जा सकता है। किसानों के अन्दर प्रोटीन के संबंध में चेतना पैदा करने के लिए डाक्टर स्वामीनाथन ने यह सुझाव दिया था कि गेहूं की ख़रीदारी के लिए क़ीमतों को इस बुनियाद पर तय किया जाए कि क़िस्म में कितना प्रोटीन पाया जाता है। उन्होंने बताया कि एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीच्यूट ग़ल्ले के कुछ बाज़ारों में प्रोटीन जांच की एक सेवा शुरू करेगा और जब इत्मीनान बक्श तथ्य जमा हो जाएंगे तब यह पैमाना क़ीमत तय करने की नीति में शामिल किया जा सकेगा। ग़ल्ले की मात्रा को बढ़ाने और उसकी क़िस्म को बेहतर बनाने के दोतरफ़ा काम को नस्ली तौर इस तरह जोड़ा जा सकता है कि ज़्यादा फ़सल देने वाले और ज़्यादा बेहतर क़िस्म के अनाज, बाजरे और दालों की खेती की जाए। बौद्धिक बौनेपन का जो ख़तरा हमारे सामने खड़ा है, उसका मुक़ाबला करने का यह सबसे कम ख़र्च और फ़ौरन क़ाबिले-इ-अमल तरीक़ा है। (स्टेट्समैन, दिल्ली, 4 सितम्बर 1967)
डाक्टर स्वामीनाथन के उपरोक्त बयान के प्रकाशन के बाद विभिन्न अख़बारों और पत्रिकाओं में इसकी समीक्षा की गई। नई दिल्ली के अंग्रेज़ी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस (7 सितम्बर 1967) ने अपने संपादकीय में जो कुछ लिखा था, उसका अनुवाद यहां दिया जा रहा है-‘इंडस्ट्री की तरह कृषि में भी हमेशा यह मुमकिन नहीं होता कि एक क्रियान्वित नीति के नतीजों का शुरू ही में अन्दाज़ा किया जा सके। इस तरह जब केन्द्र की सरकार ने अनाज की क़ीमत के सिलसिले में समर्थन नीति अख्तियार करने का फ़ैसला किया तो मुश्किल ही से यह सन्देह किया जा सकता था कि ग़ल्ले की बहुतायत के बावजूद प्रोटीन के कमी का मसला सामने आ जाएगा-जैसा कि इंडियन एग्रीकल्चरल इंस्टीच्यूट के डायरेक्टर डाक्टर स्वामीनाथन ने निशानदेही की है। ग़ल्लों पर ज़्यादा ऐतबार की ऐसी स्थिति पैदा होगी जिससे अच्छे खाते-पीते लोग भी कुपोषण में मुब्तिला हो जाएंगे। जो लोग प्रोटीन के कमी से पीड़ित होंगे , शारीरिक कष्टों के अलावा उनके दिमाग़ पर भी बुरे प्रभाव पड़ेंगे। डाक्टर स्वामीनाथन के बयान के मुताबिक़ यह होगा कि बच्चों की बौद्धिक क्षमता पूरी तरह विकसित न हो पाएगी। क्योंकि इनसानी दिमाग़ अपने वज़न का 80 प्रतिशत से लेकर 90 प्रतिशत तक 4 साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते पूरा कर लेता है, इसलिए इस कमी के नतीजे में एक बड़ा नुक्सान मौजूदा बरसों में ही हो चुका होगा। जिसका नतीजा यह होगा कि हमारे देश में बौद्धिक बौनापन वजूद में आ जाएगा। इस चीज़ को देखते हुए मौजूदा कृषि नीति पर पुनर्विचार ज़रूरी है। मगर वे पाबंदियां भी बहुत ज़्यादा हैं जिनमें सरकार को अमल करना होगा। सबसे पहले यह कि कृषि पैदावार को जानवरों से मिलने वाले प्रोटीन में बदलना बेहद महंगा है। सरकार ने हालांकि संतुलित आहार और मांस, अंडे और मछली के ज़्यादा मुहिम चलाई है लेकिन उसके बावजूद जनता आहार संबंधी अपनी आदतों को बदलने में बहुत सुस्त है।

आम तौर पर भूख का मसला, जानवरों को पालने की मुहिम चलाने में ख़र्च का मसला और लोगों की आहार संबंधी आदतों को बदलने की कठिनाई वे कारण हैं जिनकी वजह से सरकार को कृषि की बुनियाद पर अपनी नीति बनानी पड़ती है, लेकिन निकट भविष्य को देखते हुए ऐसा मालूम होता है कि सरकार स्वामीनाथन की चेतावनी को नज़रअन्दाज़ न कर सकेगी। ऐसा मालूम होता है कि दूरगामी परिणाम के ऐतबार से कृषि नीति की कठिनाईयों को अर्थशास्त्र के बजाय विज्ञान हल करेगा। अनुभव से पता चला है कि अनाज ख़ास तौर पर गेहूं को प्रोटीन की मात्रा को बढ़ाती है। इसके बावजूद यह बात संदिग्ध है कि सिर्फ़ ग़ल्ले की पैदावार के तरीक़े में तब्दीली इस समस्या का समाधान साबित हो पाएगी। जब तक प्रोटीन की उत्तम क़िस्में रखने वाले गेहूं न खोज लिए जाएं। जब तक ऐसा न हो सरकार को चाहिए कि दालों और पशुपालन को इसी तरह प्रोत्साहित करे जिस तरह वह अनाज को प्रोत्साहित करती है।‘ (इंडियन एक्सप्रेस, 7 सितम्बर 1967)
जैसा कि मालूम है कि भारत को अगले बीस बरसों में एक नया और बहुत भयानक ख़तरा पेश आने वाला है। यह ख़तरा कृषि केन्द्र के डायरेक्टर के अल्फ़ाज़ में ‘बौद्धिक बौनेपन‘ का ख़तरा है। इसका मतलब यह है कि हमारी आने वाली नस्लें जिस्मानी ऐतबार से ज़ाहिरी तौर पर तो बराबर होंगी लेकिन बौद्धिक योग्यता के ऐतबार हम दुनिया की दूसरी सभ्य जातियों से पस्त हो चुके होंगे।
यह ख़तरा जो हमारे सामने है, उसकी वजह डाक्टर स्वामीनाथन के अल्फ़ाज़ में यह है कि हमारा आहार में प्रोटीन की मा़त्रा बहुत कम होती है। यहां की आबादी एक तरह के प्रोटीन के फ़ाक़े में मुब्तिला होती जा रही है। प्रोटीन भोजन का एक तत्व है जो इनसानी जिस्म के समुचित विकास के लिए अनिवार्य है। यह प्रोटीन अपने सर्वोत्तम रूप में मांस से हासिल होता है। मांस का प्रोटीन न सिर्फ़ क्वालिटी में सर्वोत्तम होता है बल्कि वह अत्यंत भरपूर मात्रा में दुनिया में मौजूद है और सस्ता भी है।
वही हिस्ट्री ऑफ़ थॉट का अध्ययन बताता है कि विचार के ऐतबार से इनसानी इतिहास के दो दौर हैं। एक विज्ञान पूर्व युग और दूसरा विज्ञान के बाद का युग विज्ञान पूर्व युग में लोगों को चीज़ों की हक़ीक़त मालूम न थी, इसलिए महज़ अनुमान और कल्पना के तहत चीज़ों के बारे में राय क़ायम कर ली गई। इसलिए विज्ञान पूर्व युग को अंधविश्वास का युग कहा जाता है। उपरोक्त ऐतराज़ दरअस्ल उसी प्राचीन युग की यादगार है। यह ऐतराज़ दरअस्ल अंधविष्वासपूर्ण विचारों की कंडिशनिंग के तहत पैदा हुआ, जो परम्परागत रूप से अब तक चला आ रहा है।
अंधविश्वास के पुराने दौर में बहुत से ऐसे विचार लोगों में प्रचलित हो गए जो हक़ीक़त के ऐतबार से बेबुनियाद थे। विज्ञान का युग आने के बाद इन विचारों का अंत हो चुका है। मस्लन सौर मण्डल बारे में पुरानी जिओ-सेन्ट्रिक थ्योरी ख़त्म हो गई और उसकी जगह हेलिओ-सेन्ट्रिक थ्योरी आ गई। इसी तरह मॉडर्न केमिस्ट्री के आने के बाद पुरानी अलकैमी ख़त्म हो गई। इसी तरह मॉडर्न एस्ट्रोनोमी के आने के बाद पुरानी एस्ट्रोलोजी का ख़ात्मा हो गया, वग़ैरह वग़ैरह। उपरोक्त ऐतराज़ भी इसी क़िस्म का एक ऐतराज़ है और अब यक़ीनी तौर पर उसका ख़ात्मा हो जाना चाहिए।
गैलीलियो 17वीं षताब्दी का इटैलियन साइंटिस्ट था। उसने पुराने टॉलमी नज़रिये से मतभेद करते हुए यह कहा कि ज़मीन सौर मण्डल का केन्द्र नहीं है, बल्कि ज़मीन एक ग्रह है जो लगातार सूरज के गिर्द घूम रहा है। यह नज़रिया मसीही चर्च के अक़ीदे के खि़लाफ़ था। उस वक़्त चर्च को पूरे यूरोप में प्रभुत्व हासिल था। सो मसीही अदालत में गैलीलियो को बुलाया गया और सुनवाई के बाद उसे सख़्त सज़ा दी गई। बाद में उसकी सज़ा में रियायत करते हुए उसे अपने घर में नज़रबंद कर दिया गया। गैलीलियो उसी हाल में 8 साल तक रहा, यहां तक कि वह 1642 ई. में मर गया।
इस वाक़ये के तक़रीबन 400 साल बाद मसीही चर्च ने अपने अक़ीदे पर पुनर्विचार किया। उसे महसूस हुआ कि गैलीलियो का नज़रिया सही था और मसीही चर्च का अक़ीदा ग़लत था। इसके बाद मसीही चर्च ने साइंटिफ़िक कम्युनिटी से माफ़ी मांगी और अपनी ग़लती का ऐलान कर दिया। यही काम उन लोगों को करना चाहिए जो अतिवादी रूप से वेजिटेरियनिज़्म के समर्थक बने हुए हैं। यह नज़रिया अब साइंटिफ़िक रिसर्च के बाद ग़लत साबित हो चुका है। अब इन लोगों को चाहिए कि वे अपनी ग़लती स्वीकार करते हुए अपने नज़रिये को त्याग दें, वर्ना उनके बारे में कहा जाएगा कि वे विज्ञान के युग में भी अंधविष्वासी बने हुए हैं।

2 comments:

  1. भाई इस लेख का अनुवाद हमने किया है। आप दूसरों की मेहनत को लें तो कोई बात नहीं लेकिन उसका हवाला देना आपका अख़लाक़ी फ़र्ज़ है।
    आपको हमारे ब्लॉग का लिंक भी देना चाहिए था।

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