Thursday, 31 March 2011

बंटवारे के बाद इस मुल्क में मुसलमान


See full size imageबंटवारे के बाद इस मुल्क में मुसलमान ही है जो सबसे ज़्यादा टोटे और ख़सारे में रहा। इस क़ौम का सभी सियासी जमातों ने ख़ून चूसा और मौजूदा दौर में भी चूसा जा रहा है। मगर ये क़ौम है जिसे अपने छले जाने तक का अहसास नहीं। इस की बदक़िस्मती ये है कि इस के साथ हमदर्दी तो बहुतेरे सियासी रहनुमाओं ने दिखाई मगर किसी न किसी गर्ज़ से। तारीख़ की ख़ाक बाद में छानेंगे फ़िलहाल तो मौजूदा दौर पर बात करते हैं। देशभर में आज हर क़ौम के नेताओं की भरमार है। दलित हो, पिछड़ा हो, पंडित, बनिया, पंजाबी, आदिवासी और न जाने कितनी क़ौमें, गिनना भी आसान नहीं। नेता सबके हैं। मगर नेताविहीन अगर कोई क़ौम है तो सिर्फ मुसलमान। देश की तमाम सियासी जमातों ने इस क़ौम को पिछलग्गू बना लिया पर साझेदार नहीं। इनके वोट का इस्तेमाल तो सब ने किया मगर समसस्याओं को समाधान नहीं। मुसलमानों के बूते पर कांग्रेस ने पचास साल से भी ज़्यादा राज किया। लालू प्रसाद यादव बीस साल तक मुसलमानों के दम पर सत्ता का सुख भोगते रहे। रामविलास   पासवान, मायावती समेत कई नेता इसी वोट बैंक के आधार पर सत्ता की मलाई मारते रहे। लेकिन मैं एक सवाल करता हूं। भले ही टके का हो, देश के किसी भी बड़े सियासी दल का मुखिया कोई मुसलमान क्यों नहीं है? मंसूबे साफ़ ज़ाहिर हैं। समझने वाले समझ भी रहे होंगे। कोई हिंदू नेता हिंदू कट्टरवादी नेता या संगठन को गाली दे दे तो वो मुसलमानों का मसीहा बन जाता है। चाहे वो फिर मुलायम सिंह यादव या फिर कोई और ही क्यों न हो। जो खुद को मुल्ला मुलायम सिंह तक कहलवा रहे हैं। पर भोला मुसलमान इस सियासत को नहीं समझ पाता। ये सब वोट बटोरने की ज़ुबान है। इसके अलावा कुछ भी नहीं। मुलायम सिंह मुलायम सिंह ही रहेंगे। वो मुल्ला या मौलाना कभी नहीं बन सकते। मुलायम सिंह अगर आपके इतने ही हमदर्द हैं तो उन्होंने सपा में अपने कद का नेता किसी मुसलमान को क्यों नहीं बनने दिया। उनके सूबे में जिस मुसलमान का क़द बढने लगा उसी के पर कतर डाले। अमर सिंह, आज़म ख़ान जैसे लोग नंबर दो, तीन की पोजीशन पर रहे। जबकि मुसलमानों के वोटों पर ही उन्होंने सत्ता का सुख भोगा है। ऐसा ही हाल दूसरे नेताओं का भी है। मुसलमान को भीख का टुकड़ा तो हर दर से मिला मगर भागीदारी कहीं से नहीं। ग़ौर करने वाली बात है कि हिंदुस्तान की किसी पार्टी में कोई मुसलमान नेता इस क़द और क़ुव्वत का है जो सीना चौड़ा कर मुसलमानों का हक़ मांगने की जुर्रत रखता हो। या फिर अपनी संख्या के आधार पर लोकसभा और राज्य सभा में भागीदारी मांग सके। सच्चाई ये है कि वो अपनी आबादी के आधार पर अपनी पार्टी से मुसलमानों को टिकट तक नहीं दिलवा सकता। सब पिछलग्गू हैं। सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने भले के लिए चाटूगीरी करते नज़र आते हैं। ये सफ़ेदपोश नेता जिनके दिल अंदर से काले हैं अपने स्वार्थ के लिए मुसलमानों को क़दम क़दम पर बेचने का काम कर रहे हैं।
 इस मुल्क में हुए दंगों ने न जाने कितने मज़लूम, बेबस, बेगुनाह और लाचार मुसलमानों की जान ले ली। न जाने कितने आयोग बैठे। लेकिन कोई आयोग किसी दोषी को सज़ा की दहलीज़ तक नहीं पहुंचा पाया। क़ातिल भी वही मुंसिफ भी वही। भला इंसाफ मिलता भी तो कैसे। अब ज़रा तारीख़ के दरीचे को और खोलते हैं। ग़ौर कीजिए हिंदुस्तान के जिस-जिस शहर में मुसलमानों की माली हालत सुधरने का सिलसिला शुरू हुआ वहां-वहां दंगाइयों ने न सिर्फ़ मुलमानों का क़त्लेआम किया, बल्कि उनकी माली हालत से भी कमर तोड़ डाली। अलीगढ़, मेरठ, मुरादाबाद, भागलपुर, मलियाना, अहमदाबाद, सूरत जैसे दर्जनों शहर तो महज़ एक मिसाल भर हैं। ख़ासतौर से कांग्रेस की मुखिया रही इंदिरा गांधी की ये पोलिसी रही कि मुसलमानों को भय यानी ख़ौफ और दहशत में रखा जाए। उनको जनसंघ जैसे हिंदू कट्टरवादी संगठनों का ख़ौफ दिखाकर, कांग्रेस की ओर आकर्षित करने का काम किया गया। इसी साज़िश के तहत पहले मुसलमानों को पिटवाया और फिर पुचकारा। यही वजह रही कि मुसलमान कांग्रेस का वोट बैंक बना रहा। अपने बीच मौजूद बुज़ुर्गों से ज़रा पूछिए। मेरे लिखे की तस्दीक़ और आपकी तसल्ली दोनों हो जाएंगी। एक लंबा समय ऐसा ग़ुजरा है जब मुसलमान ने सरकार से न रोटी मांगी न रोज़गार। मांगी  तो सिर्फ अपने जान माल की हिफाज़त। जो लोग इन पंक्तियों को पढ़ रहे हैं शायद उनमें से कुछ ने दंगे का ख़ौफ देखा हो, या फिर महसूस किया हो। लेकिन मैंने बहुत सारे दंगों का हाल अपनी आंखों से देखा है। जंगलों, तालाबों, नदियों और नालों में लावारिस मुलमानों की लाशों में कीड़े पड़ते देखे हैं। मुसलमानों की जलती लाशें देखी हैं। उनके मकानों में भड़कती आग का धुआं देखा है। बर्बादी के बाद उजड़े मकानों की वीरानगी देखी है। उजड़ी जिंगदियों से भी रूबरू हुआ हूं। यतीमों और विधवाओं से लिपटकर रोया भी हूं। लेकिन इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि ये सब कुछ सिर्फ मज़हब की नफ़रत नहीं बल्कि सोची समझी राजनीत का हिस्सा थी। मुनव्वर राना का शेर याद आ रहा है। क्या ख़ूब कहा है।
जख़्म तो हमेशा भर ही जाते हैं। मगर जख़्मों के निशान नहीं मिटते। मगर हमारी  आदत बन गई है कि हम सबकुछ भूल जाते हैं। इस मुल्क में नसबंदी के नाम पर जो कुछ मुसलमानों के साथ हुआ मैंने तो देखा नहीं। लेकिन पुराने अखबारों में पढ़ा ज़रूर है। सिर्फ मुसलमान ही नहीं दूसरी कौमें भी इस ज़ुल्म का शिकार हुई थीं। मगर कोई भूला या न भूला मुसलमान वो सब कुछ भूल गया। दंगे एक नहीं हज़ारों हुए। वो सब कुछ भूल गया। बाबरी मस्जिद से भला कौन मुसलमान बेख़बर है। जो कुछ हुआ मैं बताने की ज़रूरत नहीं समझता। लेकिन एक मुसलमान है सब कुछ भुलाकर फिर कांग्रेस का पिछलग्गू बन गया। कांग्रेस अपने आपको धर्मनिरपेक्ष पार्टी बताती है। मुझे तो हंसी आती है उसकी धर्मनिरपेक्षता पर। हां इतना ज़रूर है कि इस पार्टी ने धर्मरपेक्षता का मुखौटा ज़रूर पहन रखा है। इस मुल्क में मुसलमानों की मुसीबतों और उनके पिछड़ेपन को दूर करने के लिए कांग्रेस ने ढिंढोरा तो ख़ूब पीटा। मगर क्या उसे दूर करने के लिए कोई अमली जामा पहनाया? सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने सही मायने में कांग्रेस की बईमान नीयत की ही पोल खोली है। ये सवाल मैं आम मुसलमान से पूछ रहा हूं। क्या ऐसा हुआ है? नई सरकारें आती हैं, नए नए आयोग बनते हैं। और नए नए वायदों के काग़जी मसौदे तैयार होते हैं। लेकिन वो हमेशा दफ्तरों की फाईलों में धूल चाटते चाटते दम तोड़ देते हैं। ईमानदारी बरती गई होती तो 62 साल की आज़ादी में  मुसलमानों का यही हाल हुआ होता जो आज है? आंकड़े गवाह हैं कि सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की तादाद कितनी है। यही आंकड़े नेताओं की बेईमान नीयत की पोल खोलते हैं। यदि आप मेहनत के बूते पर किसी ओहदे पर हैं भी तो आपको आपकी औक़ात की जगह पर रखा जाता है। एक बार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने बयान में ख़ुद ये क़बूला कि मुसलमान अफसरों की अनदेखी की जा रही है। उन्होंने मुस्लिम अफसरों को ठीकठाक जगहों पर तैनात किए जाने की सिफारिश भी की थी। लेकिन इस पर भी अमल नहीं हुआ। कुछ मुसलमान अफसर दिखावेभर के लिए ज़रूर हैं। जिनको ठीकठाक जगहों पर तैनात किया गया है। मगर ऐसे अफसरों को महज़ उंगलियों पर गिना जा सकता है। या फिर कुछ मुसलमान चापलूसी कर किसी मुक़ाम पर पहुंच गए हैं। सरकार के इस बारीक खेल को मैं नज़दीक से जानता हूं। बहुत सारे मुसलमान अफसरों का दुखड़ा सुन चुका हूं। जिनको नौकरी करना भी भारी पड़ रहा है। वो अपने आपको 32 दांतों के बीच अकेली ज़ुबान महसूस करते हैं।
1984 में दिल्ली ही नहीं देशभर में सिखों का क़त्लेआम हुआ। मुक़दमे चले, आयोग बने। आयोग की रिपोर्ट के आधार पर आरोपी सज़ा के अंजाम तक पहुंचे। अब दूसरी और 1992 में सीलमपुर में दंगा हुआ। सरेआम मुसलमानों का क़त्ल हुआ। लुटे-पिटे और हवालात की हवा खाई। मगर किसी दोषी को आज तक कोई सज़ा नहीं मिली। जिन मुसलमानों पर मुक़दमे लगे उन्होंने बरसों अदालत की दहलीज़ पर अपनी जूतियां रगड़ीं। आख़िरकार वो अदालत से बरी तो हो गए। लेकिन सही माएने में एक सज़ा भुगतने के बाद। हैरत की बात तो यह है कि जिन मुसलमानों पर दंगा करने के मुक़दमे बने उनमें दर्जनों कांग्रेसी कार्यकर्ता भी थे। और वो लोग आज भी कांग्रेस के साथ जुड़े हुए हैं। मैं एक-एक का नाम जानता हूं। मिसाल के तौर पर मक़सूद जमाल नाम के एक शख़्स हैं। जो दंगे के दौरान पुलिस की लाठियों का शिकार बनें। बुरी तरह ज़ख़्मी हुए। पहले अस्पताल गए। फिर जेल की हवा खाई। मुक़दमा चला। बरसों अदालत के चक्कर काटे। बाद में बरी हो गए। लेकिन वो आज तक कांग्रेस की ग़ुलामी से बाहर नहीं आ सके। ये तो सिर्फ एक मिसालभर है। सब कुछ सहने के बाद भी मुसलमान कुछ नहीं समझता। दरअसल कांग्रेस के साथ जुड़े रहने के पीछे कोई मजबूरी नहीं बल्कि स्वार्थ छिपे हैं। आम मुसलमान समझे या न समझे मगर मैं ज़रूर समझता हूं। हज़ारों मुसलमानों के क़त्ल का यही हाल हुआ है। एक और दंगे का मैं चश्मदीद हूं। उत्तर प्रदेश के खुर्जा क़स्बे में क़रीब तीन सौ मुसलमान मारे गए। एक लड़का शाकिर जिसकी उम्र उस वक्त करीब 15 साल थी। उसके परिवार और रिश्तेदार मिलाकर कुल 27 लोग एक ही वक्त में आग के हवाले कर दिए गए। शाकिर अभी ज़िंदा है। दोषियों को सज़ा तो बहुत दूर की बात पुलिस उनका पता तक नहीं लगा पाई। लेकिन मुसलमान  सारे जख़्म भूल गया। दिल्ली के मुसलमानों ने तो बहुत जल्द ही सब कुछ भुलाकर कांग्रेस का दामन थाम लिया। अब बारी उत्तर प्रदेश की है। जहां मुसलमानों ने कांग्रेस को गले लगाने की क़वायद शुरू कर दी है। काश मुसलमानों ने सिखों से भी कोई सबक़ सीखा होता।
हिंदुस्तान के इतिहास के पन्नों को ज़रा पलटये। इस मुल्क में अगर सबसे ज़्यादा शोषण किसी का हुआ है तो वो दलित बिरादरी। ये तबक़ा सदियों से दबा कुचला था। दाद देनी पड़ेगी डाक्टर भीमराव अम्बेडकर को। जिस शख़्स ने अपनी क़ौम के दर्द का अहसास किया। और दलितों को एक दिशा दिखाने का काम किया। क़ाबिले तारीफ काशीराम भी हैं। जिन्होंने दलितों के विकास का जो बीज बोया उसका पौधा अब फल देने लगा है। दलितों की हालत आज मुसलमानों से कहीं बेहतर है। आज वो भीख के टुकडों पर नहीं पलते। अपने वोट के दम पर सत्ता के भागीदार बनते हैं। आज उनकी भागीदारी हर जगह नज़र आती है। प्रशासन, न्याय पालिका या फिर कार्य पालिका। मगर मुसलमान हर जगह से नदारद है। उसकी हिस्सेदारी कहीं नज़र नहीं आती। ये हालात अचानक नहीं बदले। इसके लिए दलितों ने अपनी बिरादरी के लोगों को वोट की ताक़त का एहसास कराया। और जब वोट की ताक़त उनकी समझ में आई तो सत्ता का सुख मिलने में कोई देर नहीं लगी। एक अनपढ़ क़ौम जागरूक हो गई। आज हालात ये हैं कि पूरे देश में दलितों का वोट उनके नेताओं के आदेशानुसार ही पड़ता है। आज वो संगठित हैं। बिना शर्त वो किसी को समर्थन नहीं देते। पहले अपने मतलब की बात करते हैं बाद में समर्थन की। लेकिन एक मुसलमान है। जो जज़्बात में आकर बिना किसी शर्त, बिना सोचे समझे किसी को भी अपना वोट दे देता है। ज़रा कोई उसकी शान में चार शब्द कह दे, बस उसी पर अपना सबकुछ न्यौछावर कर देता है। एक दलित को वोट की ताकत का अहसास हो गया लेकिन मुसलमान को कब होगा ये तो ख़ुदा ही जाने। इसके लिए हम मुसलमानों के नेता भी ज़िम्मेदार है किसी ने हमारी रहनुमाई नहीं की अगर करने की कोशिश की तो उसकी आवाज़ दबा दी गई और हम बैठे देखते रहे बतला हाउस इसका एक नमूना है अज उलेमा काउन्सिल उठी है अल्लाह से दुआ करता हु की आगे बढे मगर अगर हम साथ देगे तब ना हम तो बैठ कर तली बजने का ही काम करते है और मेरे ये नहीं समझ में आता है की कब तक हम तली बजेगे कभी हमारे लिए तली भी बजेगी या ऐसे ही हम रहेगे किसी नेता को पकड़ा तो उसी मुल्ला समझ बैठे अपना मसीहा बना बैठे क्या आज तक उस पार्टी को एक मुसलमान मुख्यमंत्री नहीं मिल सका है हमेशा मुलायम ही रहेगे .......................
ए मुसलमानों अपने आपको संगठित कर सत्ता में भागीदारी हासिल करो। सत्ता में भागेदारी मिली तो मसाइल सारे अपने आप हल हो जाएंगे। अपना हक़ हासिल करो। भीख के लिए दामन फैलाना छोड़ दो। खद्दरधारियों की कैद से खुद को आज़ाद करो। अपने वोट की ताक़त को पहचानो। संगठित होना सीखो। किसी भी एक पार्टी की ताबेदारी से बाहर आओ। जो सत्ता में भागेदारी दे। उससे अपने वोट का सौदा तय करो। एक बात और बता दूं। इसके लिए संगठन बनाने की सख़्त ज़रूरत है। संगठन बनाना ही नहीं उसे मज़बूत भी करना है। इसके लिए अभियान भी चलाना पड़ेगा। ज़मीन तैयार किए बिना कुछ नहीं होगा। एक संगठन है आरएसएस। वो चुनाव नहीं लड़ता मगर भाजपा पार्टी के सारे फैसले उसी के दरबार में होते हैं। जिक्र आरएसएस का आया है तो थोड़ा उसके बारे में भी बता दूं। 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले आरएसएस को इस बात का पूरा एअहसास हो गया था कि बिना मुसलमानों के आडवाणी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते। इसके लिए आरएसएस ने बाक़ायदा एक मुस्लिम राष्ट्रीय मंच बनाकर मुसलमानों को गले लगाने की क़वायद शुरू कर दी थी। मरहूम जमील इल्यासी जो अपने आपको इमामों की तंज़ीम का सदर कहते थे वो और उनके बेटे उमैर इल्यासी एक बार नहीं कई बार लाल कृष्ण आडवानी से मिले। इनकी मुलाक़ात आरएसएस के बड़े नेता इंद्रेश कुमार से भी हुई। इसके अलावा कुछ उलेमा और भाजपा नेता शहनवाज़ हुसैन की अनेक बार श्री आडवाणी के साथ लंबी-लंबी मुलाक़ातें हुईं।मगर नतीजा क्या है आप देखो भाजपा में बड़े ओहदे पर हैं शहनवाज़ हुसैन। सरकार में मंत्री भी रहे हैं। पार्टी के टिकट पर दूसरी बार लोकसभा में भी पहुंच गए। पार्टी में  उनकी औक़ात क्या है। जान लीजिए। दिल्ली में पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान टिकटों का बटवारा हो रहा था। एक तरफ लोकसभा चुनावों के मद्देनजर मुसलमानों को गले लगाने की क़वायद का सिलसिला जारी था। तो दूसरी तरफ मुसलमानों की औक़ात बताई जा रही थी।टिकट सीताराम गुप्ता नाम के एक आदमी को मिला। शाहनवाज़ की लाख कोशिशों के बावजूद उनके किसी आदमी को टिकट नहीं मिला। भाजपा ने मात्र एक टिकट मुसलमान को दिया। यानि उंगली कटा कर नाम शहीदों में शामिल कर दिया।
हमें अपनी कुछ और खामियों पर भी नज़र डालनी होगी। हमने अपनी बुनियादी मुश्किलात को दरकिनार कर दिया है। और वक्त गुजर रहा है बेवजह की बातों में। मिसाल के तौर पर मस्जिद और मदरसों में सियासत देखने को मिल जाएगी। हमने इमामों और उलेमाओं की क़दर करना छोड़ दिया है। हालात तो यहां तक पहुंच गए हैं जिन लोगों के घर में बच्चे और बीवी नहीं सुनते वो इमाम, मुअज़्ज़न और उलेमाओं  पर हुक्म चलाते नजर आते हैं। अकसर मस्जिद और मदरसों में गुटबाज़ी दिखना आम बात हो गई है। अरे भाई ये लोग मज़हब का काम कर रहे हैं। इन्हें करने दो। जिसको क़ुरान और हदीस की सही जानकारी न हो उसे मज़हब के काम में दखल नहीं देना चाहिए। लेकिन मज़हब से दूर भी नहीं रहना चाहिए। सही मायने में हम लोगों ने दीन का दामन नहीं थामा है। भाई लोगो उलेमा हमारे रहनुमा हैं। उनकी इज़्ज़त करना हमारा फर्ज़ है। इसलिए बेवजह की बातों से दिमाग हटाकर सही दिशा में ध्यान लगाओ। हमें जरूरत है सियासी तंजीम पर काम करने की। हमें ज़रूरत है एक इंक़लाब की। हमको भागीदारी के लिए देश में एक आंदोलन खड़ा करना होगा। उसके लिए तहरीक चलाएं, मुसलमानों को जगाने का काम करें। इस पर हमारा वक्त खर्च होगा तो हो सकता है कि भागीदारी के पेड़ की जड़े मज़बूत होने लगें। ये भी मुमकिन है कि  पेड़, फल फूल गया तो फल हम खाएंगे। और तैयार होने में देर लगी तो हमारी नस्लों को फल ज़रूर मिल जाएगा। पहला काम है ज़मीन में पौधा लगाने का। बाद में उसे खाद और पानी देने का। इसके लिए हर गांव, मोहल्ले, क़स्बे, और शहरों में तंज़ीम कायम करनी होगी। जिसका मक़सद सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों को संगठित करना हो। साथ हे एक बात और ध्यान से सुनो मेरे भैया एक बात का ख़ुलासा करना ज़रूरी समझता हूं। हम लोगों को फ़िरक़ा परस्ती से बहुत दूर रहना होगा। अगर कुछ लांछन लगते भी हैं तो उनको सीना चौड़ाकर धोना भी पड़ेगा। चूंकि इस मुल्क की यह भी एक सच्चाई है कि यहां का बहुसंख्यक हिंदू फ़िरक़ा परस्त नहीं है। ये बात अलग है कि चंद लोग बुरे हो सकते हैं। चंद लोग तो मुसलमानों में भी बुरे हैं। जिनके कारनामों की वजह से पूरे मुसलमानों को गाली सुननी पड़ती हैं। इस मुल्क में दंगे ख़ुद कभी नहीं हुए। हमेशा उसके पीछे कोई न कोई सियासी खेल छिपा था। मैं चंद मिसालें पेश करता हूं जिनसे ये साबित होता है कि हिंदू फ़िरक़ापरस्त नहीं है।भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरपरस्त आरएसएस 18 फ़ीसदी मुसलमानों की मुख़ालफत करके आज तक अकेले दम पर इस मुल्क में सत्ता हासिल नहीं कर सकी। चूंकि इस देश में रहने वाले बाक़ी हिंदुओं को 18 फ़ीसदी मुसलमानों की मुख़ालफत नागवार गुज़रती है। ये बात अलग है कि अब आरएसएस और भाजपा की भी ये समझ में आ गया है कि हम लोग बिना मुसलमानों के सत्ता की सीढियां पार नहीं कर सकते। जब 82 फीसदी लोगों में फ़िरक़ा परस्ती का फर्मूला फ़ेल हो गया तो हम 18 फीसदी लोग फ़िरक़ा परस्ती का लिबादा ओढ़कर कैसे कामयाब हो सकते हैं। मेरा मानना है धर्मनिरपेक्ष लोगों को हमारी भागीदारी की मुहिम से कोई गुरेज नहीं होगा। एक बात और बता दूं। मुल्क के बटवारे का बीज जिसने भी बोया उसने मुसलमानों के हक़ में ऐसे कांटें बिखेरे हैं जिनको समेटना अब नामुमकिन है। न पाकिस्तान का मुसलमान सुकून से है और न बांगलादेश का। काश बटवारा न हुआ होता तो सत्ता में हमारी भागीदारी पूरी होती। हमारा मुल्क दुनिया में शिखर पर होता। हम दुनिया के तमाम मुल्कों की फ़ेहरिस्त में सफे अव्वल पर होते। लेकिन नफ़रत की बुनियाद पर बना  पाकिस्तान आज पूरी दुनिया में मुसलमानों के नाम पर कलंक साबित हो रहा है। ज़रा मज़हब-ए-इस्लाम को पढ़ कर तो देखो। कौन सी हदीस या क़ुरान में लिखा है कि डंडे के बल पर इसलामी झंडा बुलंद करो। अरे क़ुरान की साफ़ आयत है। लकुमदीनुक वलयेदीन। तुम्हारा दीन तुम्हें मुबारक और मेरा दीन मुझे मुबारक। इस्लाम तो अपने अख़लाक के दम पर फैला है। खानक़हों से फैला है। हज़रत मोहम्मद सल्ल. की ज़िंदगी और सहाबा हज़रात की जिंदगी उठाकर देखो। साबित होता है कि इस्लाम तलवार के बूते पर नहीं फैला। हिंदुस्तान में आज भी एक तंज़ीम है।  हज़ूरे अकरम सल्ल. ने जब दुनिया से पर्दा किया तो सहाबा इकराम को वो कौन सा डंडा थमा कर गए थे कि आप इसके दम पर इस्लाम फैलाना। वो अपनी ज़िंदगी और क़ुरान छोड़ कर गए हैं। ज़रूरत है उनकी ग़ुजरी हुई जिंदगी और कुरान पर अमल करने की। इसलिए मैं मुलमानों से गुजारिश करता हूं कि वो ज्यादा से ज्यादा हदीसें और तर्जुमे के साथ क़ुरान को पढ़ें। क़ुरान को समझ कर पढ़ना बेहद जरूरी है। ख़ुद पढ़ना न आता हो तो उलेमाओं की सोहबत में रहकर इल्म हासिल करें। एक बात मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि इस्लाम के क़ायदे क़ानून मानने वाले के अख़लाक़, ख़राब हो ही नहीं सकते। ये अख़लाक़ की ही वजह है कि आज दुनिया में सबसे तेजी से फैलने वाला अगर कोई मज़हब है तो वो सिर्फ और सिर्फ इस्लाम। लिहाज़ा हिंदुस्तान में रह रहे लोगों को मेरा मशविरा है कि वो अपने अख़लाक़ बेहतर बनाएं। और अख़लाक़ को ही अपना हथियार बनाकर सत्ता में भागीदारी की लड़ाई लड़ें। मैं मज़हब की किताबों के हवाले से दावा करता हूं कि जो आदमी बेहतर इंसान नहीं वो मुसलमान हो ही नहीं सकता।
अंजाम और कहानिया देख लो याद है ना बटला हाउस ऐंनकाउंटर की जिस पर जम कर  राजनीति की रोटियां सेंकी गई। सियासत सब ने की। कांग्रेस हो, भाजपा, सपा, बसपा, आरजेडी समेत और कई दलों ने इसी मुद्दे पर अपनी-अपनी दुकानदारी काफी दिनों तक चलाई। दुकान नेताओं की ही नहीं चली बल्कि मीडिया वालों को भी अपनी दुकान चलाने का मौक़ा मिला। मीडिया ने अगर जिम्मेदारी बरती होती तो ये कोई मुद्दा ही नहीं था। दरअसल 2009 का लोकसभा चुनाव नज़दीक था। सियासत लाज़मी थी। कांग्रेस ने मुस्लिम वोट हासिल करने की गर्ज से इस मामले को कुछ ज्यादा ही तूल दिया। जैसा वो हमेशा से करती आई है वही हुआ। चुनाव ख़त्म। मुद्दा ख़त्म। लोगों के सामने सच्चाई आज तक नहीं आई। और न आएगी। सरकार तब भी कांग्रेस की थी और आज भी। ज़रा उस दौरान के तमाम न्यूज़ चैनलों की क्लिपिंग उठाकर देख लीजिए। हर कोई मीडिया वाला ख़ुद ही जांच ऐजंसी और ख़ुद ही जज बनकर फैसला सुना रहा था। सबकी कहानी जुदा थी। न्यूज़ चैनलों का किसी एक बात पर इत्तिफाक़ नहीं था। अब मर्ज़ी है आपकी साड़ी ज़िन्दगी की गुलामी या फिर हमेशा की आज़ादी

1 comment:

  1. this is ur true story... we hindu knows muslims very well.... u r pathetic... ur hipocrate.. ur hard religious...... tumhari kaum sirf dusron ko marna hi janti hai..... tarraki tumhe pasand nahi hai.... duniya main sabse badmash aur kahtarnak kaum tumhari hai aur duniya ki har kaum tumse nafrat karti thi,hai aur rahegi.....

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