Monday 22 August 2011

शर्मीला - सच्चा अनशन न की अन्ना जैसा नाटक

 नवम्बर 2000 की बात है जब मणिपुर की राजधानी इम्फाल से लगभग 15-16 किलोमीटर दूर मालोम बस स्टैण्ड पर सुरक्षा बलों द्वारा अंधाधुंध गोली चलाने से दस निरपराध लोगों की मौत हुई थी। इरोम शर्मिला उस वक्त मालोम में ही एक बैठक में थी, जो एक शान्ति रैली के आयोजन के लिए बुलायी गयी थी। अगले दिन के अख़बार के पहले पन्नों पर मारे गये लोगो की तस्वीरें थीं। इरोम को उस वक्त लगा कि ऐसी परिस्थिति  में शान्ति रैली का आयोजन बेमानी साबित होगा और उसने वही निर्णय लिया कि ‘जिन्दगी की सरहद पर जाकर ऐसा कुछ किया जाये’ ताकि सुरक्षा बलों की यह ज्यादती रूके।
उत्तर पूर्व में अपने लिए नहीं अपने समाज के लोगों के लिए संघर्ष कर रही इरोम शर्मिला चानू का आमरण अनशन अपने समाज के लोगों के आत्मसम्मान और जीवन की रक्षा की खातिर है। सरकार ने वर्षों पहले विशेष सशस्त्र सेना बल (आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर) वहां लागू किया है। इससे हासिल अतिरिक्त अधिकार का मनमाना प्रयोग सेना करती चली आ रही है, जिसका विरोध मणिपुर की जनता की ओर से लगातार हो रहा है। शर्मिला ने अपना अनशन नवंबर, 2000 से आरंभ किया जब इस विषेश सशस्त्र सेना बल ने बस का इंतजार करते 10 मासूम लोगों को अपनी खूनी बंदूक का निशाना बनाया था।
विशेष सशस्त्र सेना बल के द्वारा किए गए अमानवीय कृत्यों की फेहरिस्त लंबी बताई जाती है। मनोरमा कांड भी अभी लोग भूले नहीं होंगे। कथित बलात्कार और हत्या का शिकार हुई मनोरमा देवी कांड का विरोध वहां की स्त्रियों ने नग्न प्रदर्शन करते हुए किया था, इससे साफ जाहिर होता है कि विषेश सशस्त्र सेना बल की भूमिका क्या रही होगी। मनोरमा हत्या कांड के विरोध में पबेम चितरंजन ने अपने शरीर पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्मदाह कर लिया पर सरकार के कानों पर जूं भी नहीं रेंगी। शर्मिला पर इस बात का इल्जाम लगाकर कि वह आमरण अनशन करते हुए आत्म हत्या करना चाहती है, 21 नवंबर, 2000 को पुलिस ने शर्मिला को हिरासत में लिया और उसे तब से नाक द्वारा बलात कृत्रिम आहार देकर जिंदा रखा जा रहा है। निश्चय ही शर्मिला के अनशन ने इस दमनकारी कानून के खिलाफ चेतना फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सरकार के लिए शर्मिला की लोकप्रियता सिरदर्द बनती जा रही है। निश्चय ही शर्मिला का विरोध और त्याग बेकार नहीं जाएगा और देर-सबेर सरकार को इस कानून को हटाना ही होगा।

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