Monday 15 August 2011

आंसुओं को आंखों में छुपाना कितना मुश्किल होता है

एक लुटे हुए गांव की सच्ची कहानी। अफसरों इस गांव को डकार गए। यह गांव विकलांग हो रहे भारत के लाखों गांवों का प्रतीक है। इस गांव की दास्तान बताती है कि भारत में दो हिंदुस्तान क्यों हैं। यह गांव बताता है कि 2जी घोटाला या कॉमनवेल्थ घोटाला देश में व्याप्त भ्रष्टाचार की झलक भी नहीं हैं। यह गांव बताता है कि कैसे अफसर गांवों को निगल जाते है और नेता सुध नहीं लेते। यह गांव बताता है कि संसद में नेताओं के भाषण और जमीनी हकीकत में क्या फर्क है...
 इस बेबस..विकलांग..लाचार गांव की दास्तान 20 दिसंबर 2010 को मध्प्रयदेश के किसानों ने भोपाल में ऐतिहासिक धरना दिया था। मैं भी हैरान था कि ऐसा क्या हुआ कि किसान अपना घर-बार छोड़कर राजधानी को घेरने के लिए विवश हो गए। रात को करीब 11.30 बजे ऑफिस से निकल कर मैं सीधे किसानों से मिलने पहुंचा था। कई किसानों से बात की तो पता चला कैसे भ्रष्टाचार गांवो को असहाय बना रहा है। वहीं मेरी बात रायसेन जिले की सिलवानी तहसीले के भोंड़िया गांव निवासी नंदराम साहू से हुई थी। नंदराम ने बयान किया था कि किस तरह जिले में व्याप्त भ्रष्टाचार का शिकार होने के बाद वो विवश होकर धरने में शामिल हो रहे थे ताकि उनकी आवाज मुख्यमंत्री तक पहुंच जाए। इस पर भास्कर में अगले दिन हमने स्टोरी भी की थी यह बताते हुए कि एक दूर-दराज गांव का किसान क्यों राजधानी घेरने पहुंचता है। अखबार में खबर छपने के बाद भोंड़िया गांव के लोगों को कुछ अधिकारियों ने फोन किया। पहली बार उनके गांव की सुध किसी ने ली थी। वहां के लोगों को लगने लगा कि अखबार में अगर खबर छपे तो शायद गांव का विकास हो जाता है। मेरे पास लगातार भोंड़िया गावं के लोगों के फोन आते रहे। वो चाहते थे कोई आकर उनकी बात सुने। हर बार उनकी यही शिकायत होती कि तहसील से लेकर जिला स्तर पर कहीं भी उनकी सुनवाई नहीं होती है। मैं बार-बार अपनी व्यस्तता का बहाना बनाता रहा। वो अधिकारी जो उनकी सुनने के लिए ही तन्खवाह लेते हैं उनकी बात नहीं सुन रहे हैं तो मैं ही क्यों उनकी बात सुनता? लेकिन एक बार जब उन्होंने कहा कि चाहों तो किराए के पैसे ले लो लेकिन हमारी बात सुनलो तो मैं खुद को रोक नहीं सका और भोड़िया जाने का कार्यक्रम बना लिया।
 9 फरवरी को करीब एक बजे में अपनी मोटरसाइकिल से भोड़िया गांव के लिए निकला। भोपाल से सिलवानी तक की सड़क अच्छी और मनमोहक थी। रास्ते के नजारे देखते हुए मैं कब सिलवानी पहुंचा पता नहीं चला। तभी सड़क पर खड़े कुछ पुलिसवालों ने मेरी मोटरसाइकिल रोकी। वो झंडा दिवस के लिए चंदा मांग रहे थे। मैंने मना किया तो जवान भाषण देने लगे और गाड़ी के पेपर वगैरह मांगे। शायद यह बताने की जरूरत नहीं है कि उनका व्यावहार बेहद अपमानित करने वाले था। कागज दिखाकर मैंने पैसे नहीं दिए। अपना परिचय दिया तो मुझे जाने दिया गया। कुछ आगे बढ़कर मैंने बाकी गाड़ियों से पैसे लेते हुए उनकी फोटो ले ली। वो एक ट्रैक्टर से आ रहे एक किसान से पैसे लेने लगे। रौब झाड़ते हुए जवान का हाथ सीधे किसान की जेब तक पहुंच गया। ट्रैक्टर वाले से पैसे लिए, झंडा चिपकाया और उसे जाने दिया। मुझे फोटो लेते देखते ही एक उम्रदराज जवान मेरे पास आया। गिड़गिड़ाते हुए कहा जो पैसे हमने लिए हैं तुम ले लो लेकिन इस फोटो को छापना मत। बोला हम बहुत मजबूर हैं, ऊपर से एसपी साहब का आदेश है रोज 1250 रुपए इकट्ठा करके देने हैं झंडा दिवस के लिए इसलिए यहां चंदा कर रहे हैं। यहां बता देना चाहता हूं कि हमारे देश में आर्म्ड फोर्सेज फ्लैग डे हर साल 7 दिसंबर को मनाया जाता है जिसके लिए नागरिक अपनी मर्जी से चंदा भी देते हैं। जब मैंने कहा कि जो मैंने देखा है उसे छापूंगा जरूर तो वो थाने के अंदर भाग गए।
सिलवानी पहुंचते ही पुलिसवालों को पैसा वसूल करते देख मुझे भोंड़िया गांव के लोगों के दर्द का कुछ आभास हो गया था। सड़क से सामना गांव से मुझे लेने के लिए राजेश सिलवानी पहुंचा था। मेरे यह कहने के बाद भी कि मैं बाइक से आ रहा हूं, मुझसे स्पष्ट कह दिया गया था कि आप मत आइयेगा, हम आपको सिलवानी लेने पहुंचेंगे। सिलवानी से भोंड़िया जाने वाली सड़क से सामना होते ही मैं उनके डर को समझ गया था। यह अंदाजा लगा पाना मुश्किल था कि नाले में सड़क थी या सड़क में नाला। राजेश ने मुझसे बाइक लेते हुए कहा कि यह हमारे गांव को जाने वाला रास्ता है आप बाइक नहीं चला पाएंगे। बाइक भागते हुए आदमी की गति से आगे बढ़ रही थी। ऊंचे नीचे रास्ते में बाइक जब धंसती तो सूरज छुप जाता जब ऊपर उठती तो सूरज दिख जाता। ऐसे रास्ते से मेरा सामना पहली बार हुआ था। जाहिर है डर लग रहा होगा। इससे पहले की मैं कुछ कहता राजेश बोल पड़ा डरो मत यहां लुटेरे नहीं होते हैं, सिर्फ पुलिस ही लूटती है। जैसे तैसे गांव पहुंचा। कितना समय लगा बता नहीं सकता यह जरूर कह सकता हूं कि चार किलोमीटर का समय तय करने के लिए यह मेरे जीवन का सबसे लंबा समय था।
कभी नहीं देखा था ऐसा गांव गांव में कोई पक्का घर नहीं दिखा था। राजेश गांव के कच्चे रास्तों से निकालते हुए पैदल ही संतोष से मिलाने के लिए ले गया। एक मंदिर और गांव के पटेल के दो घरों को छोड़कर सभी मकान कच्चे थे। हम संतोष की झोपड़ी में पहुंचे तो अंधेरा हो चुका था। संतोष, उसकी मां और दो और लड़के वहां वैठे थे। इतने मे ही बिजली आई, वहां बैठे दोनों लड़के बिजली की रफ्तार से भागे, संतोष ने भी उठने की कोशिश की लेकिन भाग नहीं सका। उसके दोनों पैरों में पोलियो है..वो भाग नहीं सकता। इससे पहले की वो आगे बढ़ता बिजली चली गई। रोशनी गांव में मुंह दिखाई करके जा चुकी थी। खाना खाया, बिजली एक बार और आई और चली गई। कुछ लोगों से गांव के बारे में बात की और सो गए। सूखी फसलें, आंखों में आंसू गांव के लोग इक्टठा होकर मुझे फसलें दिखाने ले गए। इस साल पड़ी कड़ाके की सर्दी ने फसलों को नष्ट कर दिया था। मेरे हाथ में डायरी देख खेतों में काम कर रहे लोगों में यह आस जग गई कि शायद कोई सरकारी अफसर फसलों का सर्वे कर रहा है। इससे पहले गांव का पटवारी एक बार आकर यह काम पूरा कर चुका था। लोग मुआवजे की उम्मीद में बैठे थे। भूखे लोगों के लिए 500 कितने होते हैं यह बात मुझे फसल दिखाते हुए उनकी गुहार ने समझाई। तुअर की फसल पूरी तरह नष्ट हो चुकी थी। तुषार के कोप से नष्ट हुए चने की फसल दिखाते हुए किसानों की आंखें डूब रही थी। फली फोड़ी तो अंदर दाना नहीं था। लेकिन मजबूर किसान की आंख में आंसू जरूर थे। मैंने बमुश्किल अपनी भावनाओं को काबू किया। आंखें मेरी भी नम थी लेकिन इतनी नहीं जितनी उस किसान की । जिस दुख को वो झेल रहे थे मैं उसे सिर्फ महसूस कर रहा था। चने में दाना नहीं था, जो मसूर तुषार की चपेट में आई थी उसकी फलियां खाली थी। बाद में उगे पौधों ने दाना पड़ने की उम्मीदें भी उगा दी थी। किसान पौधों से उपज की उम्मीद में खेतों में काम कर रहे थे। एक ही खेत में दो तरह के पौधे थे एक वो जिन्हें ठंड ने मार दिया था और एक वो जिनकी फलियों में दाने की उम्मीद थी। तुषार ने 75 प्रतिशत फसल को नष्ट कर दिया था। बाकी की 25 प्रतिशत किसानों का भविष्य थी। मैंने पहली बार महसूस किया था कि फसल का नष्ट होना क्या होता है। मुआवजे के लिए पटवारी का आग्रह करना क्या होता है। पटवारी द्वारा पैसे मांगने की बात बताते हुए किसान के होंठ कंपकपाने लगे थे। कितना मिलेगा इसका पता नहीं था, कितना देना है इसकी उन्हें चिंता थी। कभी राजीव गांधी कहा करते थे कि जो पैसा सरकार भेजती है उसका 15 प्रतिशत गांवों तक पहुंचता हैं। मैंने यह महसूस किया कि उस 15 प्रतिशत के पहुंचने का तो पता नहीं लेकिन उसके पहुंचने की उम्मीद में बिना कुछ मिले ही बेचारे गरीब उल्टे 10 प्रतिशत अफसरों को जरूर दे देते हैं।
आशाहीन माएं खेतों से लौटते वक्त मैं गांव के आदीवासी मोहल्ले में गयां। महिलाएं कच्चे मकानों की सफाई में लीन थीं। मेरी मुलाकात लाखन आदीवासी की पत्नी मीनाबाई से हुई। गोद में बच्चा दूध पी रहा था। पूछा तुम गांव की आशा को जानती हो जवाब मिला ये आशा क्या होती है? आजतक आशा घर नहीं आई तो पता कैसे चलेगा। मैं आगे बढ़ गया। ज्योति के घर पहुंचा। सिर पर रूमाल बांधें करहाते हुए ज्योति बाहर निकली। चेहरा पीला था, आंखों में थकान थी। पूछा बीमार हो बोली नहीं अभी 20 दिन पहले ही बच्ची को जन्म दिया है। इसलिए सिर पर रूमाल बांधकर काम कर रही हूं। मैंने पूछा आशा को जानती हो। उल्टे ज्योति ने हंसते हुए सवाल कर दिया ये आशा कौन हैं हम तो कौनो आशा को नहीं जानते। पूछा जब गर्भवति थी किसी ने आकर तुम्हारा हाल जाना। जवाब ना ही था। ज्योति ने अपनी बेटी मनीषा को घर में ही जन्म दिया था। अभी तक बच्ची को कोई टीका नहीं लगा था। एक और मां से मेरी मुलाकात हुई। 25 साल की भूरी की गोद में भी बच्ची खेल रही थी। आशा क्या होती यह उसे भी पता नहीं था। नहीं मिल रही विधवा पैंशन सरजूबाई के पति बिहारी लाल का स्वर्गवास हुए चार साल हो गए हैं। कई बार विधवा पैंशन के लिए आवेदन कर चुकी है हर बार निरस्त हो जाता है। मैंने पूछा वोटर आई कार्ड है। तुरंत झोपड़ी में अंदर गईं और बक्सा खोला। सब सामान निकलने के बाद आई कार्ड निकला। मैंने कहा बहुत संभाल कर रखती हो तो सरजू बोली जो ही तो हमारी आस है इसे नहीं संभालेंगे तो किसे संभालेंगे। सरजू ने कहा उसके नाम जमीन है जिसमें पानी नहीं होने के कारण खेती नहीं हो पाती है। दो महीने से मजदूरी भी नहीं है इसलिए खाने के लाले पड़ गए हैं। सरजू के घर का चूल्हा भले ही ठंडा हो लेकिन उसके पास पीला सरकारी कार्ड नहीं था। उसे वोटर आइकार्ड के जरिए विधवा पेंशन मिलने की आस जरूर थी। बल्ब जलता नहीं बिल जाता है मैं सरजू से बात कर ही रहा था कि हल्केवीर आदीवासी वहां आ गया। करीब 60 साल का यह बूढ़ा अभी भी मजदूरी करके अपना पेट पाल रहा था। बोला झोपड़ी में बल्ब लगाया था जिसके लिए किसी अफसर ने बिजली का कनैक्शन कर दिया। बिजली आए न आए बिल जरूर आ जाता है। दो महीने से कोई मजदूरी नहीं हुई। खाने को नहीं हैं बिल कहां से भरे हल्केवीर कहते-कहते रोने लगा। मेरा धैर्य जवाब दे रहा था। मैं जिससे बात कर रहा था उसके पास अपनी परेशानी थी। तेज कदमों से आगे बढ़ गया। आदीवासियों के मुहल्ले से निकलकर सीधे ग्राम प्रधान के आवास पर पहुंचा। सड़क ही है गांवों की खुशहाली का रास्ता गांव में जिस किसी से भी मेरी मुलाकात हुई उसने यही कहा था भोंड़िया में अगर सड़क पहुंच जाए तो यहां के घर भी पक्के हो जाएंगे। कुछ की शादी में गांव सड़क ने रोड़ा अटकाया था तो कुछ को इसी सड़क ने बेरोजगार किया था। लोगों को बेरोजगार करने वाली यह सड़क कातिल भी है। गांव में कितने ऐसे थे जो बीमार हुए तो अस्पताल नहीं पहुंच सके। कई बच्चों की किलकारियां भी इसी सड़क पर गूंजी हैं। गांव की कितनी ही महिलाएं इसी सड़क पर प्रसव पीड़ा झेलकर अस्पताल पहुंचने से पहले ही मां बनी थीं, और कितनी को अस्पताल पहुंचने का रास्ता भी नसीब नहीं हो पाया, घर में ही बच्चों को जनना पड़ा। लेकिन मैं यहां किस सड़क की बात कर रहा हूं। जो सिर्फ यहां के लोगों के सपनों में है। जो एकमात्र उम्मीद है जिसके भरोसे यह गांव तरक्की के सपने सजों रहा है। स्कूल में सात साल की ज्योति हो, 23 का शेजराम लोधी, 28 का राजेश, 55 के नंदराम या फिर 65 का हल्केवीर सबकी आंखों का सपना एक सड़क ही है। हर किसी को उम्मीद हैं कि यदि गांव में सड़क पहुंच गई तो विकास हो जाएगा। किसी को रोजगार मिलेगा तो किसी को शिक्षा। कुछ को तो सड़क से ही जीवन मिलने की उम्मीद हैं। गांव के बूढ़ों के सामने जो बीमार हुआ है वो कभी नहीं बचा। जो बूढ़ें हैं उन्हें उम्मीद है कि अगर यह सड़क बन गई तो उन्हें जीवनदान देगी। ग्राम प्रधान राजेश्वरी ने भी यही कहा कि गांव को सड़क चाहिए। जब गांव में सड़क पहुंचेगी तब ही तो मुख्यमंत्री जी द्वारा चलाई जा रही योजनाएं गांव पहुंचेंगी। जब सड़क ही नहीं है तो कोई योजना क्या हवा में उड़कर आएगी। प्रधान पति अर्जुन लोधी ने कहा था कि भले ही भोंड़िया सिलवानी से सिर्फ चार किलोमीटर दूर है। लेकिन सड़क न होने की वजह से कोई अफसर यहां नहीं आता। जब अफसर ही नहीं आएंगे तो योजनाएं कैसे गांव आयेंगी। मैं प्रधान से बात कर रहा था और लोग इकट्ठा हो रहे थे। जिससे भी बात की सबने कहां कि भोंड़ियां को एक सड़क चाहिए। भगवान सिंह का कहना था कि सड़क न होने की वजह से गांव के कितने ही युवक-युवतियों की शादी नहीं हो पा रही है। शेजराम लोधी सिलवानी में मजदूरी करने जा रहा था। यदि यह सड़क बन गई तो उसकी नौकरी में हर महीने 1500 रुपए का इजाफा हो जाएगा। अभी वो दस बजे के बाद सिलवानी पहुंच पाता है और शाम को पांच बजते ही गांव के लिए निकलना पड़ता है। इसलिए उसे सिर्फ दो हजार ही मिलते हैं। यह सड़क बन जाएगी तो उसे और गांव के अन्य युवाओं को 3500 रुपए महीना मिलने लगेंगे। कई अन्य युवा खड़े थे जो सिर्फ सड़क की वजह से ही मजदूरी करने नहीं जा पा रहे हैं। एक युवा ने कहा कि किसी भी कंपनी की मोटरसाइकिल खरीद लो एक साल में दम तोड़ देती है। जो मोटरसाइकिल रोड पर पचास का ऐवरेज देती हैं भोंड़िया में उसका ऐवरेज आधा हो जाता है। ग्रामिणों ने बताया कि सड़क न होने का सबसे बड़ा खामियाजा यहां के मौढ़ा-मौढ़ी (बच्चे-बच्चियों) को उठाना पड़ता है। मास्टर समय से स्कूल नहीं आ पाते। प्राथमिक पाठशाला में पढ़ाई नहीं हो पाती है। जो जैसे-आठवीं पास कर लेते हैं वो सिलवानी या साईंखेड़ा जाकर पढ़ने की हिम्मत नहीं कर पाते। गांव में प्राथमिक स्कूल तो 1954 से है लेकिन सड़क न होने की वजह से आजतक शिक्षा की रोशनी इस गांव तक नहीं पहुंच सकी हैं। आत्महत्या नहीं करूंगा, सड़क बन गई तो जीकर दिखाउंगा गांव में सड़क बनने का सबसे ज्यादा फायदा यदि किसी को पहुंचेगा तो वह संतोष ही है। दोनों पैरों से विकलांग संतोष के पास यूं तो ट्राईसाइकिल है लेकिन चलने के लिए उसे दो लोगों का सहारा लेने पड़ता है। पूरे गांव में भी सड़के कच्ची हैं। अभी तक एक ही सड़क है जो बन पाई है। सिलवानी का रास्ता तो और भी दूभर है। सबसे मिलने के बाद में संतोष से मिलने पहुंचा। उसकी मां ने मेरे पहुंचने से पहले ही दाल-बाटियां बना रखी थी। खाना खाने के बाद मैंने संतोष से बात की। 23 साल के संतोष ने बताया कि तीन साल की उम्र तक वो अपने पैरों पर चलता था। घर के आंगन में खेलता था। फिर एक बरसात में उसकी तबियत खराब हुई। बरसात भोंड़ियां में कर्फ्यू लगा देती है। कहीं भी आना जाना नामुमकिन हो जाता है। कई दिनों तक बरसात होती रही और संतोष बीमार रहा। मौसम कुछ साफ हुआ तो वो सिलवानी के अस्पताल पहुंचा जहां गलत इलाज हो जाने कि वजह से उसके पैर सुन्न हो गए। मां-बाप इलाज के लिए भोपाल लेकर आए। यहां भी डॉक्टरों ने जवाब दे दिया। वक्त पर सही इलाज न मिलने से चलने-फिरने वाला संतोष पोलियो ग्रस्त हो गया। उसके दोनों पैर हमेशा के लिए जा चुके थे। वो बताता है कि सड़क न होने की वजह से ही डॉक्टर उसे बचपन में टीके भी नहीं लग पाए थे। संतोष को अफसोस है कि यदि टीका लग गया होता तो शायद उसे पोलियो नहीं होता। संतोष को पोलियो हुआ..मां-बाप उसका इलाज कराने के लिए भोपाल आ गए। सालों इलाज कराया कुछ नहीं हुआं..हां खेत पर जरूर मुकदमा हो गया। जिस खेत को संतोष के पिता पूरनणसिंह की मां ने तीस साल पहले खरीदा था उसके बेचने वाले ने परिवार की गैरमोजूदगी में कागजों में हेराफेरी कर खेत पर मुकदमा कर दिया है। अभी संतोष के पास 3 एक 20 डिसमिल जमीन है और लगभग इतनी ही जमीन विवादित है। मौसम की मार, मुकदमे, बहन की शादी, दादी के क्रियाक्रम ने संतोष के परिवार पर साहूकारों का 1.5 लाख कर्ज चढ़ा दिया है। पिछले चार साल से वो जो कुछ कमा रहे हैं सूदखोरों को दे रहे हैं। बैक से भी किसान क्रेडिट कार्ड बनवाकर 41 हजार कर्ज लिया है। इस पैसे से कुआं खोदने की उम्मीद है। मैंने संतोष से पूछा...इतनी दिक्कते हैं। क्या कभी आत्महत्या करने का विचार मन में आया हैं। संतोष ने जवाब दिया जैसा जीवन वैसा ही संघर्ष। जब तक अंतिम सांस है संघर्ष करता रहूंगा। खेत में किसी भी तरह काम करने में असमर्थ संतोष कुआ चला लेता है और पानी भर सकता है। संतोष से बात करते हुए मैं बमुश्किल अपने आंसुओं को रोके हुए था। एक छलका तो वो हंसते हुए बोला कि भैय्या मैं नहीं रो रहा आप क्यों रो रहे हैं। मुझे महसूस हुआ आंसुओं को आंखों में छुपाना कितना मुश्किल होता है। मैं मुस्कुरा दिया। संतोष से पूछा तुम्हारी उम्मीद क्या है। जवाब मिला भोंड़िया को सिलवानी से जोड़ने वाली सड़क। जिस दिन यह सड़क बन जाएगी। मैं अपनी ट्राईसाइकिल चलाकर सिलवानी जा सकूंगा। मुझे धक्का देने के लिए दो लोगों की जरूरत नहीं होगी। सिलवानी जाउंगा तो कुछ काम भी कर सकूंगा। चाय बेच लूंगा, गुटखा, बीड़ी, पान कुछ भी बेच लूंगा। जिस दिन यह सड़क बन गई उस दिन मैं दिखाउंगा कि घर में लोगों का सहारा देखने वाला एक विकलांग भी पैसा कमा सकता है। वस घर से बाहर निकलने का मौका चाहिए। जब बरसात होती है तो सबसे ज्यादा असर संतोष पर ही पड़ता। गांव के अंतिम कोने में बनी झोपड़ी में ही उसे अपना सारा दिन बिस्तर पर पड़े-पड़े बिताना पड़ता है। कोई साथी नहीं होता। न बजाने के लिए रेडियो है और न देखने के लिए बोझिल। जैसे-जैसे बारिस पड़ती है वो सोचता है कभी सड़क पड़ेगी..कभी वो बाहर निकलेगा। वो भी जीवन जी पाएगा। मैं संतोष से आगे बात करने की हिम्मत खो चुका था। दाल के साथ बाटियों का स्वाद अब गयाब हो चुका था। संतोष मुझे झोपड़ी से बाहर ले आया। चल नहीं सकता था। हाथ का इशारा कर अपने खेत में खड़ा आम का पेड़ दिखाया और बोला भैय्या जब ये मजबूत आम का पेड़ ही तुषार की मार नहीं झेल पाया तो फसल क्या करती। दाना पड़ने से पहले ही खेत सूख गया। संतोष की जिस मां ने दोपहर भर मेहनत कर खाना बनाकर मुझे खिलाया था वो अब रो रही थी। हां उसके पिता पूरण के चेहरे पर शिकन नहीं थी। बोले सर्दी, गर्मी ये सब तो भगवान की मार है। भगवान की मार नहीं झेलेंगे तो क्या झेलेंगे। बस बिजली आने लगे हम अच्छी फसल उगा सकते हैं। हम साहूकार का कर्जा चुका सकते हैं। यह भोंड़िया है भेड़िया नहीं नंदराम साहू राजनीति में थोड़ा दखल रखते हैं। गांव में उनकी पहचान भाजपा कार्यकर्ता की है। जब उनसे बात की तो वो अपने गुस्से को जाहिर होने से रोक नहीं पाए। बाकी लोगों ने भी उनके सुर में सुर मिलाया। बोले अटलजी जैसे नेता हमारे सांसद रहे। हमारा भला नहीं हुआ। प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह चौहान 1991 से साल 2006 तक हमारे सांसद रहे लेकिन उन्हें हमारे गांव का नाम भी नहीं पता होगा। 2009 में पार्टी की बड़ी नेता सुषमा स्वराज यहां से सासंद बनी, भोपाल जाकर उनसे राखी भी बंधवाई इस उम्मीद में कि कभी तो बहनजी भोंड़िया की सुध लेंगी। उन्हें भी शायद ही इस गांव का नाम पता है। ये हमारा गांव है, ये भोंड़िया है कोई भेड़िया नहीं है कि नेताजी यहां आएंगे तो यह खा जाएगे। नेताजी और बहन सुषमा जी के राज में अफसर भेड़िये की तरह हमारा शिकार कर रहे हैं। बिना रिश्वत दिए किसी कार्यालय में कोई काम नहीं हो सकता। रिश्वत देकर भी हो जाए तो गनीमत है। मुख्यमंत्री जी खुद न आएं तो कोई बात नहीं..एक अफसर का नाम बता दें जो चलकर कभी भोंड़ियां आया हो और हमारी बात सुनी हो। हम इंसान नहीं है। एक सड़क हमे मिल जाए तो हम सुषमा जी को दिखा देंगे की भोंड़िया देश की किसी भी गांव से ज्यादा उन्नति कर सकता है। भोंड़िया गोकुल गांव भी घोषित किया गया। कोई अफसर आकर एक काम गांव में दिखा दे जो हुआ हो। सबसे ज्यादा हद बिजली वाले अफसर ने कर रखी है। बिना रिश्वत मांगे कोई काम है जो वो कर दे। डीपी फुंकी थी तो 20 हजार माने जो 20 का इंतेजाम हुआ तो 40 मांगने लगा। सिलवानी में तहसील के सामने कई दिन धरना चला तो उसे शरम आई और डीपी पहुंची। गांव में डीपी तो पहुंची लेकिन फसल की बुआई का वक्त तो जा चुका था। किसान मर रहा है लेकिन कर्ज और भूख से बड़ी वजह ये भ्रष्ट अफसर हैं। जो कुछ उगने की उम्मीद ही नहीं होगी। नंदराम बोले जा रहा था सब खामोशी से सुन रहे थे। लेकिन अब तक कई लोगों का सब्र टूट चुका था। बोले भोंड़िया से गलती यह हुई कि हमेशा एक ही पार्टी को वोट देती रही और विकास की उम्मींद लगाए रही। दूसरी पार्टी को वोट दिया होता तो यह हालात न होते। इतने में कुछ नौजवान बोले कि अब इस गांव में वोट नहीं पड़ेगा। जब तक गांव में सड़क नहीं तब तक इस गांव में वोटर नहीं। मास्टर साब आए नहीं बच्चे पहुंचे स्कूल मुझे रात में ही पता चल गया था कि आज तक भोंड़िया गांव की प्राथमिक पाठशाला अपने निर्धारित समय पर नहीं खुली है। ये बात अलग है कि शाला में दीवार पर खुलने का समय 10.30 बजे और बंद होने का समय 4.30 बजे लिखा गया है। सुबह 9.45 बजकर मिनट पर स्कूल में बच्चे इकट्ठा होने लगे। 10 बजते-बजते काफी बच्चे शाला में पहुंच चुके थे। बच्चे कक्षाओं में झाड़ू लगा रहे थे। टाट बिछा रहे थे और पढ़ाई के लिए तैयार हो रहे थे। साढ़े दस भी बजे लेकिन कोई शिक्षक शाला में नहीं आया। जो बच्चे आ चुके थे उन्हें इक्ट्ठा करके मैंने ही बच्चों को पढ़ाने का सोचा। सभी छात्रों के साथ राष्ट्रगीत जन-गण-मन गाया और हमारी शाला शुरु हुई। शर्मीले बच्चों से किसी भी सवाल का जवाब मिलना मुश्किल था। पहली कक्षा से आठवी तक के बच्चों में कोई भी भारत के प्रधानमंत्री का नाम नहीं बता सका। वैसे सिर्फ बच्चे ही प्रधानमंत्री से अनभिज्ञ नहीं थे, प्रधानमंत्री को भी उनकी कोई सुध नहीं है..वरना प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना की सड़क अब तक इस गांव पहुंच गई होती। पहली बार भोंड़िया गांव के लोगों की बात सुनने कोई पहुंचा था। जाहिर है कौतूहल होना ही था। कई अभिभावक भी स्कूल में इक्ट्ठा हो गए। बच्चे से उनके सपने जानें, जो लड़कियां थी वो डॉक्टर बनना चाहती थी, जो लड़के थे वर्दी उनका सपना था। कुछ ऐसे भी थे जो शिक्षक बनना चाहते थे लेकिन अपने शिक्षकों जैसे नहीं। ये बच्चों वो सपने देख रहे थे जिन्हें पूरे करना में भोंड़िया का प्राथमिक स्कूल किसी लिहाज से भी समर्थ नहीं था। ये बात अलग है कि आज भोंड़िया के बहुत कम ही बच्चे दसवीं पास कर सके। पूरे गांव में एक भी स्नातक पास से मेरी मुलाकात नहीं हुए। बच्चों से सवाल जवाबों में 11.45 बज गए। एक मास्टरसॉब अपनी मोटरसाइकिल से पहुंचे। मेरे स्कूल में होने की खबर उन्हें फोन पर दी चुकी थी। उन्हें देखते ही मैंने अपना कैमरा ऑन किया। मिलते ही बोले इसे बंद कीजिए और अकेले में बात कीजिए। ये मास्साब अपने कार्यकाल में आज तक एक बार भी 10.30 बजे स्कूल नहीं पहुंचे हैं। मैंने जितने बच्चों से भी पूछा था उनमें हर एक का कहना था कि मास्सॉब 11 बजे के बाद ही आते हैं। सामने कैमरा था और घड़ी में 12 बजे थे। मास्सॉब मिन्नतों पर उतर आए। हाथ जोड़े, पैर पड़े। पहली बार मेरे सामने कोई इस तरह गिड़गिड़ाया था। मैंने वीडियो डिलीट कर दिया। यह सच में मास्सॉब के लिए बहुत शर्मनाक था। दोबारा जब मास्सॉब सही स्थिति में आए तो उनसे उनका बयान वीडियो पर लिया। मास्साब ने स्वीकार किया कि वो लेट आते हैं। आज उनकी अम्मा के पेट में दर्द था। कल कोई बेहद निजी कारण था जिसे बता नहीं सकते। बाकी के बहाने सुनने के लिए मेरे पास वक्त नहीं था। गांव वालों के सामने मास्सॉब ने कसम खाई की अब हमेशा स्कूल में सही वक्त पर आएंगे। प्राथमिक पाठशाला का 1954 मे बना भवन अब जर्जर हो चुका है। बच्चों के पानी पीने के लिए नल नहीं है। आठवीं कक्षा में कुछ लड़कियां भी पढ़ती हैं लेकिन स्कूल में शौचालय नहीं है। वैसे जिस स्कूल में मास्टर ही न हो उसमें शौचालय ही होकर क्या करेगा। गांव में माध्यमिक पाठशाला के लिए 2007-08 अलग से भवन बना था में भवन बना था जिसमें टॉयलेट न होने के कारण वो आज तक बंद हैं। भ्रष्ट ठेकेदारों ने स्कूल तो बना दिया था लेकिन टॉयलेट नहीं बनाई थी जिस वजह से यह भवन आज तक खाली खड़ा है। स्कूल में लगे नल से ग्रामीण पानी भर लेते हैं। भवन में जानवर बंध जाते हैं। लेकिन बहुत कुछ है जो बेहतर है.... ऐसा नहीं है कि गांवों की हालत बेहद खराब है।
वहां बहुत कुछ है जो बेहतर है...बहुत बेहतर है। बस थोड़ा सा और... इस गांव के बारे में इतना ज्यादा लिख चुका हूं कि शायद आप यहां तक पहुंचे ही नहीं होंगे। यदि पहुंच गए हैं तो बस थोड़ा सा और जान लीजिए। भोंड़िया से लौटने के बाद उदय दिवाकर ( महाप्रबंधक, मध्यप्रदेश ग्रामीण सड़क परियोजना, रायसेन ) से बात की उन्होंने बताया कि ग्राम भोंड़ियां के लिए प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत सड़क मंजूर है जिसे 11वें प्रस्ताव में केंद्र सरकार को मंजूरी के लिए भेजा गया है। जून में सरकार 11वें प्रस्ताव को मंजूरी दे सड़कों के लिए राशी जारी कर देगी जिसके बाद टेंडर निकालकर इस साल नवंबर तक सड़क का निर्माण पूरा कर लिया जाएगा। गांव में स्कूलों की बदहाली के संबंध में रायसेन के जिला कार्य समन्वयक पीके सिंह जी से बात की। उन्होंने आश्वस्त किया कि उचित कार्यवाई करके गांव में शिक्षा की व्यवस्था को दुरुस्त कर लिया जाएगा। वहीं पुलिस वालों द्वारा पैसा वसूल करने के संबंध में सर्किल आफिसर रघुवीर सिंह चौहान से बात की। उन्होंने भी उचित कदम उठाने की बात कही। वक्त बीता भोंड़ियां के लिए कुछ भी नहीं हुआ। मैं दिल्ली गया तो गांव की समस्याओं को लेकर यहां की सांसद सुषमा स्वराज जी से भी मिला (जो लोकसभा में विपक्ष की नेता भी है)। उनके पीए ने भी अधिकारियों को फोन लगाए और कहा कि चीजों को बेहतर किया जाएगा और जो जिम्मेदार हैं उन्हें जिम्मेदारी का अहसास कराया जाएगा। इस सब को चार महीने बीत गए। आज (बुधवार, 25 मई 2011 ) को हमने भास्कर में यह स्टोरी प्रकाशित की। अखबार में भी छप गया। लेकिन मुझे किसी भी सरकारी विभाग से भोंड़िया के लिए कोई उम्मीद नहीं दिखती। आप क्या सोचते हैं? भोंड़िया जाने के बाद मुझे यह लगा..शायद इसमें कुछ भी नया न हो.. 1. हमारी प्राथमिकता गांवों को सड़क से जोड़ना होना चाहिए। ये सड़के ही गांवों के विकास का रास्ता है। 2. 2जी घोटाला, कॉमनवेल्थ घोटाला या फिर आदर्श घोटाला देश में व्याप्त भ्रष्टाचार का अधूरा उदाहरण हैं। असली भ्रष्टाचार तो जिला कार्यालयों में व्याप्त है जिसमें सत्ता में शामिल हर व्यक्ति लिप्त है। जिला कार्यालयों में तैनात अधिकारी जनहित के लिए नहीं बल्कि नेताहित के लिए कार्य करते हैं। बस इसे और पढ़ लीजिए... मैंने जो भी कुछ लिखा है वो शायद अकेले भोंडि़यां गांव की कहानी नहीं है। यदी मैं भोड़िया की जगह किसी और गांव में गया होता तो भी शायद हालात ऐसे ही होते या संभवतः इससे भी बदतर होते।
हम भारत निर्माण की बात करते हैं और गांवो को पीछे छोड़ देते हैं। हम किसान हित की बात करते हैं और यह सुनिश्चित नहीं कर पाते की किसानों को बिना रिश्वत दिए सुविधाएं उपलब्ध हो जाए। किसान क्रेडिट कार्ड पर बैंककर्मी कमीशन लेता है। बिजली के लिए इंजीनियर रिश्वत लेता है। फसलों के मुयानें के लिए पटवारी रिश्वत लेता है। और किसान बस रिश्वत ही देता रहता है।

जब शिवराज कुछ नहीं कर सकते, सुषमा स्वराज कुछ नहीं कर सकते तो फिर इस गांव के उद्धार के लिए क्या स्वयं ईश्वर को धरती पर आना पड़ेगा?.
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अभी मैं यह लिख ही रहा था कि मेरे फोन की घंटी बजी...राजेश का फोन था..बोला..पहली बार आपने अखबार में लिखा तो उम्मीद जगी थी। लेकिन अब तो डर लग रहा है। फसलों का मुआवजा अभी तक नहीं मिला है और पटवारी धमकी देकर गया है कि अखबार में लिखवा लिया..बसकी है तो मुआवजा लेकर दिखाओ...स्कूल में आई किताबें रद्दी में बिक गई। मास्साब एक हफ्ते तक तो टाइम पर आए लेकिन फिर स्कूल वैसा ही हो गया...राजेश की यह बात सुनकर मेरा दम घुटने लगा है...मैं खुद को बेबस...लाचार महसूस कर रहा हूं। यदि आपने इस नोट को यहां तक पढ़ लिया है तो यह भी जरूर बता दीजिए कि आपको कैसा लग रहा है? मैं आपका आभारी रहूंगा.....
By: Dilnawaz Pasha
Sub-editor at Dainikbhaskar.com(bhopal)

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