Friday 11 November 2011

हिन्दुत्व की राजनीति


राज ठाकरे हिन्दुत्व की राजनीति की खुराक पर बड़े हुए हैं. हिन्दुत्व की राजनीति की बुनियाद मुस्लिम विरोध पर टिकी हुई है. कभी-कभी यह इसाई विरोध के रूप में भी दिखाई देती है. पर राज ठाकरे को ऐसा समझ में आया कि शिव सेना से अलग होने एवं महाराष्ट्र के पिछले स्थानीय निकायों के चुनाव में करारी शिकस्त के बाद राजनीति में अपने को स्थापित करने के लिए उनके लिए उत्तर भारतियों के विरोध की राजनीति करनी आवश्यक थी. सो उन्होंने किया.

ऐसा लगा जैसे मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलने वाली मशीन का मुंह उत्तर भारतीयों की तरफ मोड़ दिया गया हो. मामला उनके नियंत्रण के इस कदर बाहर निकल गया कि उनके राजनीतिक सहयोगियों के लिए उनकी कार्यवाइयों को जायज ठहराना मुश्किल हो गया.

राज ठाकरे ने जो मुद्दा उठाया है वह उन्हीं पर भारी पड़ रहा है. उत्तर भारतीय लोग तो मुम्बई, पंजाब, गुजरात, कोलकाता ही नहीं दुनिया के कई इलाकों में, जहां-जहां मजदूरों की जरूरत थी वहां, जा कर बसे हैं. ये वो काम करते हैं जो स्थानीय लोग नहीं करते. अक्सर ये काम काफी श्रम की मांग करते हैं.

उदाहरण के लिए बोझा उठाने का काम मुम्बई में महाराष्ट्र के लोग नहीं करते. अत: राज ठाकरे का यह कहना कि उत्तर भारतीय लोग मराठी लोगों का रोजगार छीन रहे हैं पूर्णतया सही नहीं है. यदि उत्तर भारतीय लोग मुम्बई में जिन कामों में लगे हुए हैं उनसे अपने हाथ खींच लें तो मुम्बई की अर्थव्यवस्था बैठ जाएगी. यही हाल भारत व दुनिया के अन्य इलाकों का है जहां उत्तर भारतीय लोगों ने स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूत आधार प्रदान करने का काम किया है.
अब तो देश के बड़े-बड़े हिन्दुत्ववादी नेता साध्वी प्रज्ञा ठाकुर व श्रीकांत पुरोहित के पक्ष में उतर आए हैं. क्या यह कोई बरदाश्त करेगा कि मोहम्मद अफजल गुरू या फिर अजमल आमिर कसब को कोई चुनाव लड़ाए?
एक तरफ अपना खून-पसीना बहा कर स्थानीय अर्थव्यवस्था को सींचने वाले लोग हैं तो दूसरी तरफ क्षेत्रवाद की संर्कीण घिनौनी राजनीति करने वाले राज ठाकरे जिन्होंने निरीह लोगों को हिंसा का शिकार बनाया. यह निष्कर्ष निकालना बहुत मुश्किल नहीं है कि कौन देश-समाज के हित में काम कर रहा है, कौन उसके विरोध में?

पूरा देश आवाक तो इस बात से है कि जिन महाराष्ट्र के लोगों पर राज ठाकरे को बहुत नाज़ था उनमें से ही कुछ लोग देश में आतंकवादी कार्यवाइयों को अंजाम देने में मुख्य साजिशकर्ता की भूमिका में थे. यह कितने शर्म और खतरे की बात है कि सेना में काम करने वाला लेफटिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित इन कार्यवाइयों में शामिल था. साध्वी-साधुओं की लिप्तता भी कम चौंकाने वाली नहीं है. देश की रक्षा करने की जिम्मेदारी स्वीकार किए हुए तथा समाज को अध्यात्मिक दिशा देने वाले व्यक्ति देश-समाज को अंदर से ही आघात पहुंचा रहे होंगे इसकी किसी को कल्पना ही नहीं थी.

देश में होने वाली आतंकवादी कार्यवाइयों के लिए पहले पाकिस्तान के आतंकवादी संगठनों व उसकी खुफिया संस्था को जिम्मेदार ठहराया जाता था. फिर बंग्लादेश के आतंकवादी संगठन का नाम आने लगा. अंत में यह कहा जाने लगा कि देश का ही मुस्लिम युवा संगठन सिमी इन कार्यवाइयों के लिए जिम्मेदार है. देश के कई इलाकों से मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारियां भी हुईं. किन्तु इनके खिलाफ आतंकवादी कार्यवाइयों में शामिल होने के कोई ठोस सबूत नहीं हैं. सिर्फ पुलिस हिरासत में उनके इकबालिया बयान के आधार पर ही कई मुस्लिम युवाओं को लम्बे समय तक पुलिस या न्यायिक हिरासत में रखा गया है. इनमें से अधिकांश को पुलिस की घोर मानसिक-शारीरिक यातनाओं का शिकार भी होना पड़ा है.

दूसरी तरफ आतंकवादी घटनाओं में लिप्त होने के जो भी सबूत मिले हैं वे हिन्दुत्ववादी संगठनों के खिलाफ हैं. अप्रैल 2006 के नांदेड़ में दो बजरंग दल के कार्यकर्ता एक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े व्यक्ति के घर में बम बनाते हुए विस्फोट में मारे गए. तेनकाशी, तमिल नाडू, में जनवरी 2008 में रा.स्व.सं. के स्थानीय कार्यालय पर हुए हमले में संघ के ही सात कार्यकर्ता पकड़े गए. जून 2008 में ही महाराष्ट्र के गड़करी रंगायतन में हुई घटनाओं में भी हिन्दुत्ववादी संगठनों के ही कार्यकर्ता पकड़े गए.

24 अगस्त, 2008 को कानपुर में हुए एक बम विस्फोट में बजरंग दल के दो कार्यकर्ता मारे गए. और अब तक के सबसे बड़े खुलासे में मालेगांव व मोडासा बम विस्फोट की घटनाओं में हिन्दुत्ववादी संगठनों से जुड़े कई कार्यकर्ता अब तक गिरफ्तार किए जा चुके हैं. इसमें सबसे चौंकाने वाला पहलू है रा.स्व.सं. की सेना जैसे संगठन में घुसपैठ.

पहले शरारतपूर्ण ढंग से यह प्रचारित किया गया कि हरेक आतंकवादी मुस्लिम ही होता है. आतंकवादी घटनाओं में गिरफ्तार मुस्लिम युवाओं की कोई वकालत न करे इसके लिए वकीलों के संगठनों ने प्रस्ताव पारित किए. लखनऊ, फैजाबाद, धार, आदि, जगहों में जो वकील आतंकवादी घटनाओं के अभियुक्तों के पक्ष में खड़े हुए तो उनके साथ हाथा-पाई तक की गई. कहा गया कि आतंकवादियों के खिलाफ कोई सबूत नहीं हो सकता. विवेचना के पहले ही तथा बिना कोई मुकदमा चले ही अभियुक्तों को पुलिस-वकील-मीडिया आतंकवादी मान लेते थे.

अब तो सारा समीकरण ही उलट गया है. गोडसे व सावरकर की परिवार से जुड़ी एक महिला आतंकवादी घटनाओं में पकड़े गए हिन्दू अभियुक्तों के लिए चंदा इकट्ठा कर रही हैं. इनसे हम उम्मीद भी क्या कर सकते थे? अब हिन्दुत्ववादी वकीलों को कोई दिक्कत नहीं है. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने हमेशा बिना सबूत के गिरफ्तारी, पुलिस हिरासत में लम्बे समय तक रखने, पुलिस द्वारा यातनाएं देने, नारको परीक्षण, आदि, का विरोध किया है. किन्तु अभी तक यह बहस मुस्लिम अभियुक्तों या नक्सलवाद से जुड़े होने के आरोप में पकड़े गए अभियुक्तों के संदर्भ में होती थी. तब मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर आतंकवाद या नक्सलवाद के समर्थक होने के आरोप भी लगते थे. कहा जाता था कि मानवाधिकार कार्यकर्ता आतंकवादी या नक्सलवादी घटनाओं के शिकार लोगों के प्रति संवेदनशील नहीं हैं.

अब तो देश के बड़े-बड़े हिन्दुत्ववादी नेता साध्वी प्रज्ञा ठाकुर व श्रीकांत पुरोहित के पक्ष में उतर आए हैं. ऐसा नहीं दिखाई पड़ता कि वे उन आतंकी घटनाओं, जिनके लिए हिन्दुत्ववादी कार्यकर्ता पकड़े गए हैं, में मारे गए साधारण निर्दोष लोगों के प्रति जरा भी संवेदनशील हैं. शिव सेना श्रीकांत पुरोहित को चुनाव लड़ाना चाहती है तो उमा भारती प्रज्ञा ठाकुर को. क्या यह कोई बरदाश्त करेगा कि मोहम्मद अफजल गुरू को कोई चुनाव लड़ाए?

हिन्दुत्ववादी संगठन न सिर्फ परोक्ष रूप से हिंसा का या हिंसा करने वालों का समर्थन कर रहे हैं बल्कि काफी बेशर्मी पर उतर आए हैं. देश को इन्होंने काफी नुकसान पहुंचाया है. चाहे महात्मा गांधी ही हत्या हो अथवा बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना. इनकी गतिविधियों की वजह से देश में हमेशा अस्थिरता पैदा हुई है. ये देश में नफरत फैला कर समाज के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करना चाहते हैं. इनको बेनकाब किया जाना बहुत जरूरी है. इनकी असली रूप अब सामने आ रहा है. राष्ट्रवाद का नारा तो से अपनी देश-विरोधी गतिविधियों को छुपाने के लिए देते हैं. देश-समाज को इनसे बचाने की जरूरत है. आम धार्मिक हिन्दुओं को अपने आप को हिन्दुत्ववादी संगठनों से अलग कर लेना चाहिए ताकि हिन्दू धर्म की सहिष्णुता की छवि बची रहे.

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