Wednesday 31 August 2011

स्वामी, संघ और आतंक की कड़ियाँ

साधारण अपराधों की तुलना में आतंकी अपराधों की जाँच कहीं अधिक कठिन होती है। आतंकी अपराधों में बम फेंकने या गोली चलाने वाले के असली नियंत्रक, रहस्य के आवरण में लिपटे रहते हैं
। उन तक पहॅुंचना आसान नहीं होता।
समस्या को और बढ़ाती हैं जाँचकर्ताओं की मानसिकता, सोच व पूर्वाग्रह। हमारे देश में हुए अधिकांश आतंकी हमलों के लिए “जेहादी आतंकवाद“ को दोषी ठहराया जाता रहा है और पुलिस व जाँच एजेन्सियां यह मान कर चलती रही हैं कि सिर्फ व सिर्फ जेहादी मुसलमान ही आतंकवाद के लिए जिम्मेदार हैं। हर आतंकी हमले का दोष सीमा पार के किसी न किसी मुस्लिम संगठन पर मढ़ दिया जाता था। “सीमा-पार आतंकवाद“ हमारे जाँचकर्ताओं का अत्यंत प्रिय शब्द बन गया था। इन कथित सीमा-पार आतंकियों के स्थानीय संपर्क सूत्र होने के आरोप में मुसलमान युवकों को पकड़ा जाता, उन्हें शारीरिक यंत्रणा देकर उनसे इकबालिया बयान उगलवाए जाते और इस प्रकार, हर मामला “सुलझा“ लिया जाता। पिछले कई वर्षों से यह एक सिलसिला सा बन गया था।
मजे की बात यह है कि जब हमला मुस्लिम-बहुल इलाकों में, ऐसे समय व मौके पर होता था, जब वहां बड़ी संख्या में मुसलमान इकठ्ठा हों, तब भी हमले के लिए मुसलमानों को ही जिम्मेदार बताया जाता था। पुलिस तुरत-फुरत कुछ मुस्लिम युवकों को धर लेती थी और उनके खिलाफ सुबूत भी जुटा लेती थी। गैर-भाजपा शासित प्रदेश व केन्द्र की सरकारें भी इस तमाशे को चुपचाप देखती रहीं। इस पूर्वाग्रहग्रस्त जाँच प्रक्रिया पर आरोपियों या सामाजिक कार्यकर्ताओं ने जब भी आपत्ति उठाई, उन्हंच दरकिनार कर दिया गया।
इस जाँच प्रक्रिया का पाखंड पहली बार तब उजागर हुआ जब महाराष्ट्र ए.टी.एस. प्रमुख हेमंत करकरे ने मालेगाँव धमाकों में साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर व हिन्दुत्व शिविर के कई सिपाहसालारों का हाथ होने के पुख्ता सुबूत पेश किए। ये सभी आरोपी आर.एस.एस. के किसी न किसी अनुषांगिक संगठन से जुडे़ हुए थे, सांप्रदायिक विचारधारा से प्रेरित थे और हर चीज को केवल और केवल धर्म के चष्मे से देखने के आदी थे। करकरे द्वारा किए गए खुलासों से इतना तो हुआ कि पुलिस व राजनैतिक नेतृत्व, अपनी जिद छोड़कर हिन्दुत्व संगठनों को भी जाँच के घेरे में लेने लगे। हेमंत करकरे को हिन्दुत्ववादियों से धमकियां मिलने लगीं। उनकी जान खतरे में पड़ गई। अंततः करकरे का 26/11/2008 को शुरू हुए मुंबई हमले की पहली ही रात को कत्ल कर दिया गया।
परंतु करकरे के प्रयासों का यह नतीजा अवश्य हुआ कि आतंकी हमलों की जाँच सही दिशा में होने लगी। इंद्रेश कुमार जैसे वरिष्ठ आर.एस.एस. नेता व विहिप के स्वामी असीमानंद जाँच के घेरे में आ गए। स्वामी असीमानंद ने गुजरात के डांग जिले में ईसाई-विरोधी जनोन्माद भड़काया, जिसके नतीजे में वहां ईसाईयों के खिलाफ व्यापक हिंसा हुई। इसी असीमानंद ने डांग में “शबरी कुम्भ “ का आयोजन किया। आदिवासियों को डरा धमका कर इस कुम्भ में भाग लेने पर मजबूर किया गया। इनमें से कई की “घर-वापसी“ भी हुई। इस कुम्भ में आर.एस.एस. व उसके सहयोगी संगठनों के नेताओं की उपस्थिति उल्लेखनीय थी। यह कुंभ, संघ के अल्पसंख्यक-विरोधी अभियान का हिस्सा था। स्वामी असीमानंद एक बार फिर चर्चा में हैं। कारण है उनका इकबालिया बयान, जिसमें उन्होंने आतंकी हमलों में अपनी व अपने साथियों की भागीदारी को स्वीकार किया है। यह बयान उन्होंने 18 दिसंबर 2010 को मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के समक्ष दिया था। स्वामी के अनुसार, उसके दिमाग में बदला लेने का विचार सबसे पहले सन् 2002 में अक्षरधाम मंदिर पर हुए आतंकी हमले के बाद आया। सन् 2006 में वाराणसी के संकटमोचन मंदिर पर हमले के बाद इस विचार ने जोर पकड़ लिया। स्वामी ने कहा, “हमने भरत भाई (भरत रितेश्वर ) के वलसाड स्थित निवास में जून 2006 में बैठक की। इसमें हमने निश्चय किया कि मुसलमानों के पूजास्थलों पर विस्फोट किए जावें। संदीप डांगे, भरत भाई, साध्वी प्रज्ञा, सुनील जोशी लोकेश शर्मा, रामजी कालसांगरा व अमित इस बैठक में मौजूद थे। हमने तय किया कि मालेगाँव, अजमेर दरगाह, मक्का मस्जिद और समझौता एक्सप्रेस में विस्फोट किए जाएँ । जोशी ने इन सभी ठिकानों का सर्वेक्षण करने की जिम्मेदारी ली“। (द टाईम्स ऑफ इंडिया, 13 जनवरी 2011)।
स्वामी ने अपने बयान में यह भी कहा कि हमलों की तैयारी के लिए बैठक के आयोजन की पहल उस ने ही की थी। ज्ञातव्य है कि लोकेश शर्मा को पहले ही अजमेर दरगाह विस्फोट के सिलसिले में हिरासत में लिया जा चुका है।
पुलिस जाँच से यह साबित हुआ कि कई हिन्दुत्ववादी जैसे साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर (पूर्व अभाविप कार्यकर्ता), ले.कर्नल प्रसाद श्रीकान्त पुरोहित, पूर्व मेजर उपाध्याय (भाजपा के पूर्व सैनिक प्रकोष्ठ, मुंबई का प्रमुख) स्वामी दयानंद पांडे। (आर.एस.एस से जुड़ाव, अभिनव भारत की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका), इंद्रेश कुमार (आर.एस.एस. की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सदस्य), सुनील जोशी (आर.एस.एस. प्रचारक, बाद में अज्ञात हत्यारों के हाथों मारा गया), देवेन्द्र गुप्ता (आर.एस.एस. प्रचारक, अभिनव भारत से संबंध), रामचंद्र कालसांगरा, संदीप पांडे व अन्य कई आतंकी घटनाओं में शामिल थे।
स्वामी असीमानंद की स्वीकारोक्तियों से कई बातें साफ हो गईं हैं। पहली बात तो यह है कि नांदेड में संघ कार्यकर्ता राजकोंडवार के घर में हुए विस्फोट, जिसमें दो बजरंग दल के कार्यकर्ता मारे गए थे, के समय से ही सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा लगातार यह आशंका व्यक्त की जा रही थी कि हिन्दुत्व कार्यकर्ताओं का आतंकी घटनाओं में हाथ है। नांदेड मामले की जाँच एक जनसमिति ने की थी और पुलिस की जाँच व निष्कषों मैं कई कमियां पाईं थीं। इसके बाद महाराष्ट्र के परभणी, जालना, बीड व अन्य स्थानों पर ऐसी ही घटनाएं हुईं। समाजिक कार्यकर्ता लगातार अपने संदेहों की ओर सरकार व मीडिया का ध्यान आकर्षित करते रहे परंतु उनकी किसी ने नहीं सुनी। पुलिस की सोच तो पूर्वाग्रहग्रस्त थी ही, गैर-भाजपाई राज्य सरकारें व केन्द्र सरकार भी इन विस्फोटों के बीच की समानताओं और पुलिस जाँच की कमियों को अनदेखा करती रहीं।
मीडिया का बड़ा हिस्सा भी चुप्पी साधे रहा और आतंकी घटनाओं में हिन्दुत्ववादियों की भूमिका को को न के बराबर महत्व देता रहा। आतंकी घटनाओं में तथाकथित जेहादियों की भूमिका की खबरें तो मुखपृष्ठ पर बैनर शीर्षकों से छपती थीं। इसके विपरीत, पुलिस के निष्कर्ष को चुनौती देने वाली खबरें, सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा दी गई जाँचो के नतीजे आदि या तो छपते ही नहीं थे और यदि छपते भी थे तो अंदर के पृष्ठों पर छोटे-छोटे शीर्षकों से। इसी मासिकता के चलते दर्जनों मुस्लिम नौजवानों को पुलिस के हाथों घोर शारीरिक यंत्रणा झेलनी पड़ी। कई की पढ़ाई छूट गई और कई के फलते-फूलते केरियर बर्बाद हो गए।
सामूहिक सामाजिक सोच यह बना दी गई कि “सभी आतंकी मुसलमान होते हैं।“ आज भी बड़ी संख्या में मुस्लिम युवक ऐसे आतंकी हमलों के सिलसिले में सलाखों के पीछे हैं, जिन हमलों की जिम्मेदारी असीमानंद एंड कंपनी ने ले ली है। क्या सरकार, पुलिस की पूर्वाग्रहग्रस्त व गलत जाँच प्रक्रिया के कारण इन युवकों के साथ हुए अन्याय व अत्याचार की भरपाई करेगी? यह माँग की जा रही है कि वे तुरंत रिहा हों और उन्हें मुआवजा भी मिले। सरकार को इन माँगों के संबंध में जल्दी से जल्दी निर्णय लेना चाहिए।
एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि आर.एस.एस. के साथ क्या किया जाना चाहिए। संघ, नफरत की राजनीति का मुख्य स्त्रोत है। आतंकी घटनाओं में लिप्त पाए गए अधिकांश हिन्दुत्ववादियों का संघ से प्रत्यक्ष या परोक्ष संबंध था। संघ आसानी से इन लोगों से अपना कोई भी नाता होने से इंकार कर सकता है और वह ऐसा करेगा भी। संघ अपने अनुषांगिक संगठनों की गतिविधियों के लिए कानूनन जिम्मेदार नहीं है क्योंकि कागज पर वे सभी स्वायत्त हैं। जो आरोपी संघ से सीधे संबद्ध थे, उन्हें निष्कासित कर दिया गया है और संघ ने उनसे अपना पल्ला झाड़ लिया है। संघ प्रमुख ने कहा है कि उनके संगठन में हिंसक गतिविधियां करने वालों के लिए कोई स्थान नहीं है। कानूनन, संघ पर कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती। संघ का संगठनात्मक ढांचा इतना लचीला है कि वह सैकड़ों कत्ल करा दे तब भी उसके दामन पर खून का एक धब्बा भी नजर नहीं आएगा।
संघ को प्रतिबंधित करने की मांग बेमानी है। पहले भी संघ पर तीन बार प्रतिबन्ध लग चुका है-महात्मा गांधी की हत्या के बाद, आपाताकाल के दौरान और बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के बाद। संगठनों पर प्रतिबंध लगाने से कुछ खास फायदा नहीं होता। असली इलाज है विचारधारात्मक, सामाजिक व राजनैतिक स्तरों पर संघ से मुकाबला। और यह एक कठिन और चुनौतीपूर्ण कार्य है। संघ अपनी विचारधारा का सतत प्रचार-प्रसार करता रहा है। मीडिया से लेकर स्कूली पाठ्यपुस्तकों तक-सभी का उपयोग संघ अपनी विचारधारा के प्रसार के लिए करता रहा है। स्वामी असीमानंद, लक्ष्मणानंद व अन्य कथित संतों ने संघ की विचारधारा को धर्म का लबादा पहना दिया है।
हर भारतीय नागरिक, जो प्रजातांत्रिक समाज और मानवाधिकारों का हामी है, उसे अपने समान विचार वाले अन्य लोगों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाकर धर्म-आधारित राष्ट्रवाद का मुकाबला करना चाहिए। चाहे वे स्वामी असीमानंद हों या ओसामा-बिन-लादेन-ये सभी धर्म की चाशनी में लिपटे आतंकवाद के पोषक हैं।

1 comment:

  1. all muslims r terrorists and it is true... u try hard to destroye india but peopl like u never success ..... u r pathetic and " bhojh" on india... u eat inidia's food but favoured ur nazayaz bapp "pkaista".. basically all of u r pakis not indian..... we hate u.... sooner or later india free from people like u.....jai jai shriram

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