Tuesday 18 October 2011

व्यभिचार करने वाले विष्णु

साभार मेरे बडे भाई नसीम निगार हिंद का
 
अहल्या से संगम करने वाला इन्द्र
गोस्वामी तुलसीदास जी ने इन्द्र के बारे में लिखा है कि - ‘काक समान पाप रीतौ छली मलीन कतहूं न प्रतीतो‘ अर्थात इन्द्र का तौर तरीका काले कौए का सा है, वह छली है। उसका हृदय मलीन है तथा किसी पर वह विश्वास नहीं करता। वह अश्वमेध के घोड़ों को चुराया करता था। इन्द्र ने गौतम की धर्मपत्नी अहल्या का सतीत्व अपहरण किया था। कहानी इस प्रकार है-
शचीपति इन्द्र ने आश्रम से इन्द्र की अनुपस्थिति जानकर और मुनि का वेष धारण कर अहल्या से कहा ।। 17 ।। हे अति सुन्दरी! कामीजन भोगविलास के लिए ऋतुकाल की प्रतीक्षा नहीं करते, अर्थात इस बात का इन्तज़ार नहीं करते कि जब स्त्री मासिक धर्म से निवृत हो जाए तभी उनके साथ समागम करना चाहिए। अतः हे सुन्दर कमर वाली! मैं तुम्हारे साथ प्रसंग करना चाहता हूं ।। 18 ।। विश्वामित्र कहते हैं कि हे रामचन्द्र! वह मूर्खा मुनिवेशधारी इन्द्र को पहचान कर भी इस विचार से कि देखूं देवराज के साथ रति करने में कैसा दिव्य आनन्द प्राप्त होता है, इस पाप कर्म के करने में सहमत हो गई ।। 19 ।। तदनंतर वह वह कृतार्थ हृदय से देवताओं में श्रेष्ठ इन्द्र से बोली कि हे सुरोत्तम! मैं कृतार्थ हृदय से अर्थात दिव्य-रति का आनन्दोपभोग करने से मुझे अपनी तपस्या का फल मिल गया। अब, हे प्रेमी! आप यहां से शीघ्र चले जाइये ।। 20 ।। हे सुन्दर नितम्बों वाली! मैं पूर्ण सन्तुष्ट हूं। अब जहां से आया हूं, वहां चला जाऊँगा। इस प्रकार अहल्या के साथ संगम कर वह कुटिया से निकल गया।
2. वृन्दा का सतीत्व लूटने वाला विष्णु
विष्णु ने अपनी करतूतों का सर्वश्रेष्ठ नमूना उस समय दिखलाया जब वे असुरेन्द्र जालन्धर की स्त्री वृन्दा का सतीत्व अपहरण करने में तनिक भी नहीं हिचके। उसको वरदान था जब तक उसकी स्त्री का सतीत्व अक्षुण बना रहेगा, तब तक उसे कोई भी मार नहीं सकेगा। पर वह इतना अत्याचारी निकला कि उसके लिए विष्णु को परस्त्रीगमन जैसे घृणित उपाय का आश्रय लेना पड़ा।
रूद्र संहिता युद्ध खंड, अध्याय 24 में लिखा है -
विष्णुर्जलन्धरं गत्वा दैत्यस्य पुटभेदनम् ।
अर्थात : विष्णु ने जलन्धर दैत्य की राजधानी जाकर उसकी स्त्री वृन्दा सतीव्रत्य (पतिव्रत्य) नष्ट करने का विचार किया।
इधर शिव जलन्धर कि साथ युद्ध कर रहा था और उधर विष्णु महाराज ने जलन्धर का वेष धारण कर उसकी स्त्री का सतीत्व नष्ट कर दिया, जिससे वह दैत्य मारा गया। जब वृन्दा को विष्णु का यह छल मालूम हुआ तो उसने विष्णु से कहा-
धिक् तदेवं हरे शीलं परदाराभिगामिनः।
ज्ञातोऽसि त्वं मयासम्यङ्मायी प्रत्यक्ष तपसः।।
अर्थात् : हे विष्णु ! पराई स्त्री के साथ व्यभिचार करने वाले, तुम्हारे ऐसे आचरण पर धिक्कार है। अब तुम को मैं भलीभांति जान गई। तुम देखने में तो महासाधु जान पड़ते हो, पर हो तुम मायावी, अर्थात महाछली।
साभार मेरे बडे भाई नसीम निगार हिंद का
 

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